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पाणिनीय-अष्टाध्यायी प्रवचनम्
सुख और प्रिय प्रीत्यात्मक ही हैं फिर यहां प्रीति का ग्रहण उनकी अधिकता को प्रकाशित करने के लिये किया गया है।
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सिद्धि-(१) ब्राह्मणसु॑खम् । ब्राह्मण+ ङे+सुख+सु । ब्राह्मणसुख+सु। ब्राह्मणसुखम् । यहां ब्राह्मण और सुख शब्दों का 'चतुर्थी तदर्थार्थबलिहितसुखरक्षितैः' (२1१/३६ ) से चतुर्थी तत्पुरुष समास है। 'ब्राह्मण' शब्द में 'ब्रह्मन्' शब्द से 'तस्यापत्यम्' (४1१1९२ ) से अपत्य अर्थ में 'अण्' प्रत्यय है । अत: यह प्रत्ययस्वर से अन्तोदात है। यह इस सूत्र से सुख शब्द उत्तरपद होने पर प्रकृतिस्वर से रहता है।
(२) छात्रप्रिय: । यहां छात्र और प्रिय शब्दों का पूर्ववत् चतुर्थी तत्पुरुष समास है । 'छात्र' शब्द में 'छत्रादिभ्यो ण:' ( ४ । ४ । ६२ ) से 'ण' प्रत्यय है । अत: यह प्रत्ययस्वर से अन्तोदात्त है। यह इस सूत्र से प्रिय शब्द उत्तरपद होने पर प्रकृतिस्वर से रहता है।
(३) क॒न्या॑प्रिय: । यहां कन्या और प्रिय शब्दों का पूर्ववत् चतुर्थी तत्पुरुष समास है । 'कन्या' शब्द तिल्यशिक्यकाश्मर्यध्धान्यकन्याराजन्यमनुष्याणामन्तः' (फिट्० ४1८) से स्वरितान्त है । यह इस सूत्र से 'प्रिय' शब्द उत्तरपद होने पर प्रकृतिस्वर से रहता है ।
प्रकृतिस्वरः
(१७) स्वं स्वामिनि । १७ ।
प०वि० - स्वम् १ | १ स्वामिनि ७ । १ । अनु०-प्रकृत्या, पूर्वपदम्, तत्पुरुषे इति चानुवर्तते। अन्वयः-तत्पुरुषे स्वामिनि स्वं पूर्वपदं प्रकृत्या ।
अर्थः- तत्पुरुषे समासे स्वामि-शब्दे उत्तरपदे स्ववाचि पूर्वपदं प्रकृतिस्वरं भवति ।
उदा० - गवां स्वामी - गोस्वामी । अश्वानां स्वामी - अश्व॑स्वामी । धनस्य स्वामी - धन॑स्वामी ।
आर्यभाषाः अर्थ- (तत्पुरुषे ) तत्पुरुष समास में (स्वामिनि) स्वामिन् शब्द उत्तरपद होने पर (पूर्वपदम् ) पूर्वपद (प्रकृत्या ) प्रकृतिस्वर से रहता है।
उदा०-गोस्वामी। गौओं का स्वामी । अश्व॑स्वामी । घोड़ों का स्वामी । धन॑स्वामी । धन का स्वामी ।
सिद्धि - (१) गोस्वामी। यहां गो और स्वामिन् शब्दों का 'षष्ठी' (२/२Iट) से षष्ठीतत्पुरुष समास है। 'गो' शब्द प्रत्यय स्वर से अन्तोदात्त है। यह इस सूत्र से स्वामिन् ' शब्द उत्तरपद होने पर प्रकृतिस्वर से रहता है।