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षष्ठाध्यायस्य द्वितीयः पादः
२३५ में प्रकृतिस्वर से रहता है। कलापिनोऽण् (४।३।१०८) से कलापी शब्द से प्रोक्त अर्थ में 'अण्' प्रत्यय होता है। इनण्यनपत्ये' (६।४।१६४) से प्रकृतिभाव प्राप्त होने पर वा०- नान्तस्य टिलोपे सब्रह्मचारि०' (६।४।११४) से टि-लोप होता है। इस प्रकार कालाप' शब्द प्रत्यय स्वर से अन्तोदात्त है।
(३) प्राच्याध्वर्युः । यहां प्राच्य और अध्वर्यु शब्दों का पूर्ववत् कर्मधारय तत्पुरुष समास है। इस सूत्र से अध्वर्यु शब्द उत्तरपद होने पर प्राच्य' पूर्वपद प्रकृतिस्वर से रहता है। 'प्राच्य' शब्द 'धुप्रागपागुदक्प्रतीचो यत्' (४।२।१००) से यत्-प्रत्ययान्त है। अत: 'यतोऽनाव:' (६।१।२०७) से आधुदात्त है।
(४) सर्पिर्मण्डकषायम् । सर्पिर्मण्ड+डस्+कषाय+सु। सर्पिर्मण्डकषाय+सु। सर्पिर्मण्डकषायम्।
यहां सर्पिर्मण्ड और कषाय शब्दों का जाति अर्थ अभिधेय में 'षष्ठी' (२।२।८) से षष्ठीतत्पुरुष समास है। इस सूत्र से कषाय शब्द उत्तरपद होने पर सर्पिर्मण्ड' पूर्वपद प्रकृतिस्वर से रहता है। 'सर्पिर्मण्ड' शब्द में भी षष्ठीसमास होने से यह समासस्य' (६।१।२१७) से अन्तोदात्त है। ऐसे ही-उमापुष्पकषायम् ।
(५) दौवारिककषायम् । यहां दौवारिक और कषाय शब्दों का पूर्ववत् षष्ठीतत्पुरुष समास है। इस सूत्र से कषाय शब्द उत्तरपद होने पर दौवारिक' पूर्वपद प्रकृतिस्वर से रहता है। दौवारिक शब्द तत्र नियुक्तः' (४।४।६९) से नियुक्त अर्थ में ठक्-प्रत्ययान्त है, अत: प्रत्यय के कित् होने से 'कित:' (६।१।१५९) से अन्तोदात्त है। प्रकृतिस्वर:
(११) सदृशप्रतिरूपयोः सादृश्ये ।११। प०वि०-सदृश-प्रतिरूपयो: ७ ।२ सादृश्ये ७।१।
स०-सदृशं च प्रतिरूपं च ते सदृशप्रतिरूपे, तयो:-सदृशप्रतिरूपयो: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
तद्धितवृत्ति:-सदृशस्य भाव:-सादृश्यम्। अत्र ‘गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च' (५ ।१ ।१२४) इत्यनेन ब्राह्मणादेराकृतिगणत्वाद् भावे ष्यञ् प्रत्ययः।
अनु०-प्रकृत्या, पूर्वपदम्, तत्पुरुषे इति चानुवर्तते। अन्वय:-तत्पुरुषे सादृश्ये सदृशप्रतिरूपयो: प्रकृत्या पूर्वपदम् ।
अर्थ:-तत्पुरुष समासे सादृश्यवाचिनो: सदृशप्रतिरूपयोरुत्तरपदयो: पूर्वपदं प्रकृतिस्वरं भवति।