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________________ षष्ठाध्यायस्य प्रथमः पादः ७ सूत्र से अभ्यस्त संज्ञा होती है । अभ्यस्त संज्ञा होने से 'अदभ्यस्तात्' (७|१|४) से झिके झकार को अत् आदेश होता है । और 'श्नाभ्यस्तयोरात:' ( ६ । ४ । ११२) से अभ्यस्त धातु के आकार का लोप होता है। (२) ददत् । यहां पूर्वोक्त दा' धातु से लट् प्रत्यय और 'लट: शतृशानचावप्रथमासमानाधिकरणे (३ । २ । १२४ ) से 'लट्' के स्थान में शतृ आदेश होता है। शेष अभ्यस्त -संज्ञा कार्य पूर्ववत् है । (३) दधतु । यहां डुधाञ् धारणपोषणयो:' (जु०3०) धातु से 'लोट् च' (३ । ३ । १६२ ) से 'लोट्' प्रत्यय और उसके लकार के स्थान में 'तिप्तस्झि०' (३/४ /७४) से तिप् आदेश है। शेष अभ्यस्त - संज्ञा कार्य पूर्ववत् है । 'अभ्यासे चर्च' (८/४/५४) से अभ्यास के धकार को जश् दकार आदेश होता है। अभ्यस्त संज्ञा (६) जक्षित्यादयः षट् । ६ । प०वि० - जक्ष् १ ।१ इत्यादयः १ । ३ षट् १ । १ । स०-इति आदिर्येषां ते-इत्यादय: ( बहुव्रीहि: ) । अनु०-अभ्यस्तम् इत्यनुवर्तते । अन्वय:-जक्ष्, इत्यादयश्च षड् अभ्यस्तम् । अर्थः-जक्ष् धातुः, इत्यादय: =जक्षादयश्चान्ये भवन्ति । ते चेमे षड् धातवोऽभ्यस्तसंज्ञका (१) जक्ष भक्षहसनयो: ( अदा०प०) ते जक्षति। (२) जागृ निद्राक्षये ( अदा०प०) ते जाग्रति । (३) दरिद्रा दुर्गतौ ( अदा०प०) ते दरिद्रति । (४) चकासृ दीप्तौ ( अदा०प०) ते चकासति । (५) शासु अनुशिष्टौ (अदा०प०) ते शासति । (६) दीधीङ दीप्तिदेवनयो: ( अदा० आ०) ते दीध्यते । स दीध्यत् । (७) वेवीङ् वेतिना तुल्ये ( अदा०आ०) ते वेव्यते । आर्यभाषाः अर्थ- (जक्ष्) ज‍ यह धातु तथा ( इत्यादय: ) यह जक्ष जिनके आदि में है उन (षट्) छः धातुओं की (अभ्यस्तम्) अभ्यस्त संज्ञा होती है। उदा०- -(१) ते जक्षति | वे सब खाते / हसते हैं । ते जाग्रति । वे सब जाते हैं। ते दरिद्रति । वे सब दरिद्र होते हैं। ते चकासति । वे सब चमकते हैं। ते शासति । वे सब
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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