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________________ २२० पाणिनीय-अष्टाध्यायी- प्रवचनम् होने पर 'अञ्चति' के उदात्त अकार का लोप हो जाता है। अत: 'अनुदात्तस्य च यत्रोदात्तलोप:' ( ६ । १ । १५६) से उदात्तनिवृत्तिस्वर अर्थात् विभक्ति को अनुदात्त स्वर प्राप्त होता है। यह सूत्र उसका अपवाद है। ऐसे ही दधीचा, दधीचे, मधूचः, मधूचा, मधूचे । अन्तोदात्तः (६६) समासस्य । २२० । वि०- समासस्य ६ ।१ । अनु०-उदात्त:, अन्त इति चानुवर्तते अन्वयः - समासस्यान्त उदात्तः । अर्थ:-समासस्यान्त उदात्तो भवति । उदा० - राजपुरुषः । ब्राह्मणकम्बलः । कन्यास्वनः । पटहशब्द: । नदीघोष: । राजपृषत् । ब्राह्मणसमित् । आर्यभाषाः अर्थ- (समासस्य ) समास को (अन्तः उदात्तः) अन्तोदात्त स्वर होता है। उदा० - राजपुरुषः । राजा का पुरुष । ब्राह्मणकम्बलः । ब्राह्मण का कम्बल । कन्यास्वनः । कन्या की आवाज़ । पटहशब्दः । ढोल का शब्द । नदीघोषः । नदी का शब्द | राजपृषत् । राजा का बिन्दु ( चिह्नविशेष ) । ब्राह्मणस॒मत् । ब्राह्मण की समिधा । सिद्धि - राजपुरुषः । राजन्+स+पुरुष। राजन्+पुरुष। राजपुरुष+सु। राजपुरुषः । यहाँ राजन और पुरुष शब्दों का षष्ठी (२121८) से षष्ठीतत्पुरुष समास होता है। इस सूत्र से समास को अन्तोदात्त स्वर होता है । 'नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य' (८/२/७ ) से नकार का लोप होता है। ऐसे ही - ब्राह्मणकम्बलः आदि । 'स्वरविधौ व्यञ्जनमविद्यमानवत्' इस परिभाषा से स्वर-1 र-विधि में व्यञ्जन वर्ण अविद्यमान के समान होता है । अत: इस सूत्र से राजपृषत् और ब्राह्मणसमित् व्यञ्जनान्त समासपदों में भी अन्तोदात्त स्वर होता है। यह सूत्र नानापदों के पृथक्-पृथक् स्वर का अपवाद है । ।। इति पूर्वस्वरप्रकरणम् । । इति पण्डितसुदर्शनदेवाचार्यविरचिते पाणिनीयाष्टाध्यायी प्रवचने षष्ठाध्यायस्य प्रथमः पादः समाप्तः । ।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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