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________________ षष्टाध्यायस्य प्रथमः पादः २१३ उदा०-(ईड) ईड्यम् । स्तुति करने योग्य। (वन्द) वन्दयम् । अभिवादन/स्तुति करने योग्य। (व) वार्यम् । सेवा-परिचर्या करने योग्य। (शंस) शंस्यम् । प्रशंसा करने योग्य। (दुह्) दोया धेनुः । दुहने योग्य गाय।। सिद्धि-(१) ईड्यम् । ईड्+ण्यत् । ईड्य। ईड्य+सु। ईड्यम्। यहां ईड स्तुतौं' (अदा०आ०) धातु से ऋहलोर्ण्यत्' (३।१।१२४) से ‘ण्यत्' प्रत्यय है। इस सूत्र से ण्यत्-प्रत्ययान्त ईड्यम्' शब्द आधुदात्त होता है। तित् स्वरितम् (६।१।१७९) से स्वरित स्वर प्राप्त था। (२) वन्यम् । वदि अभिवादनस्तुत्योः' (भ्वा०आ०) धातु से पूर्ववत् ण्यत्' प्रत्यय है। 'इदितो नुम् धातो:' (७।१।५८) से नुम्' आगम होता है। स्वर-कार्य पूर्ववत् है। (३) वार्यम् । वृङ् सम्भक्तौ (क्रया०आ०) से पूर्ववत् ण्यत्' प्रत्यय है। अचो मिति (७।२।११५) से वृ' अंग की वृद्धि होती है। स्वर-कार्य पूर्ववत् है। (४) शंस्यम्। 'शंसु स्तुतौ' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् ण्यत्' प्रत्यय है। स्वर-कार्य पूर्ववत् है। (५) दोयो। 'दुह प्रपूरणे' (अदा०उ०) धातु से पूर्ववत् ‘ण्यत्' प्रत्यय है। 'पुगन्तलघूपधस्य च' (७।३।८६) से लघूपधलक्षण गुण होता है। स्त्रीत्व-विवक्षा में 'अजाद्यतष्टा (४।१।४) से 'टाप्' प्रत्यय होता है। स्वर-कार्य पूर्ववत् है। आधुदात्त-विकल्प: (५८) विभाषा वेण्विन्धानयोः ।२१२। प०वि०-विभाषा ११ वेणु-इन्धानयोः ६।२। स०-वेणुश्च इन्धानश्च तौ वेण्विन्धानौ, तयो:-वेण्विन्धानयोः (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)। अनु०-उदात्त, आदिरिति चानुवर्तते। अन्वय:-वेण्विन्धानयोर्विभाषाऽऽदिरुदात्त:। अर्थ:-वेणु-इन्धानयो: शब्दयोर्विकल्पेनादिरुदात्तो भवति । उदा०- (वणुः) वेणुः, वेणुः । (इन्धान:) इन्धान:, इन्धानः । आर्यभाषा: अर्थ:-विण्विन्धानयोः) वेणु और इन्धान शब्दों को (विभाषा) विकल्प से (आदिः, उदात्तः) आधुदात्त होता है। उदा०- विणु:) वेणु:, वेणुः । वंश=बांस । (इन्धान:) इन्धान:, इन्धान: । दीप्तिशील एवं जलता हुआ।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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