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षष्टाध्यायस्य प्रथमः पादः
१६७ यहां भौरिकि शब्द से विषय दिश) अर्थ में 'भौरिक्याद्यैषुकार्यादिभ्यो विधल्भक्तलौ' (४।२।५४) से विधल्' प्रत्यय है। प्रत्यय के लित् होने से प्रत्यय से पूर्ववर्ती अच् उदात्त होता है। ऐसे ही-भौलिकिविधम् ।
(३) ऐषुकारिभक्तम् । ऐषुकारि+भक्तल्। ऐषुकारि+भक्त। ऐषुकारिभक्त+सु। ऐषुकारिभक्तम्।
यहां एषुकारि' शब्द से विषय (दश) अर्थ में पूर्ववत् 'भक्तल' प्रत्यय है। प्रत्यय के लित् होने से एषुकारिभक्तम्' इस पद में प्रत्यय से पूर्ववर्ती अच् उदात्त होता है। प्रत्ययात् पूर्वमुदात्त-विकल्पः
_(३७) आदिर्णमुल्यन्यतरस्याम्।१६१। प०वि०-आदि: ११ णमुलि ७१ अन्यतरस्याम् अव्ययपदम्। अनु०-उदात्त इत्यनुवर्तते। अन्वयः-धातोणर्मुल्यन्यतरस्यामादिरुदात्त:।
अर्थ:-धातोर्णमुलि परतो विकल्पेनादिरुदात्तो भवति, पक्षे च प्रत्ययात् पूर्वमुदात्तं भवति।
उदा०-लोलूयंलोलूयम्, लोलूयंलोलूयम्। पोर्पूयंपोपूयम्, पोपूर्यपोपूयम्।
आर्यभाषा: अर्थ:-(धातो:} धातु को (णमुलि) णमुल् प्रत्यय परे होने पर (अन्यतरस्याम्) विकल्प से (आदिः, उदात्त:) आधुदात्त होता है।
उदा०-लोलूयंलोलूयम् । पुन: पुन:/अधिक काट-काटकर। लोलूयंलोलूयम् । अर्थ पूर्ववत् है। पोर्पूयंपोपूयम् । पुन: पुन:/अधिक पवित्र-पवित्र करके। पोपूयंपोपूयम् । अर्थ पूर्ववत् है।
___ सिद्धि-लोलूयंलोलूयम् । लू+यङ् । लूय-लूय । लो-लूय । लोलूय+ णमुल्। लोलूय+अम्। लोलूयम् । लोलूयंलोलूयम्।
___ यहां लूज छेदने (क्रया उ०) धातु से प्रथम 'धातोरेकाचो हलादे: क्रियासमभिहारे यङ् (३।१ ।२२) से यङ्' प्रत्यय है। यङन्त लोलूय' धातु से 'आभीक्ष्ण्ये णमुल् च' (३।४।२२) से ‘णमुल्' प्रत्यय है। वाo-'आभीक्ष्ण्ये द्वे भवत:' (८।१।१२) से द्वित्व होता है। तस्य परमामेडितम् (८।१।२) द्विरुक्त के परवर्ती शब्द रूप की आमेडित संज्ञा होती है और वह 'अनुदात्तं च' (८।१।३) से अनुदात्त होता है। इस सूत्र से लोलूय' धातु को णमुल् प्रत्यय परे होने पर आधुदात्त होता है। अनुदात्तं पदमेकवर्जम्' (६।१।१५३) से शेष पद अनुदात्त और 'उदात्तादनुदात्तस्य स्वरित:' (८।४।६५) से उदात्त से उत्तर