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के इकार केतु आदि प्रयोगमा निजाये (
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (४) जाग्रति । जागृ निद्राक्षये' (अदा०प०) धातु से पूर्ववत् ।
'ददतु' आदि प्रयोग लोट् लकार के हैं। उन्हें 'एरु:' (३।४।८६) से झि' प्रत्यय के इकार को उकार आदेश होता है। स्वर-कार्य पूर्ववत् है। आधुदात्तः
(३३) अनुदात्ते च।१८७। प०वि०-अनुदात्ते ७।१ च अव्ययपदम् ।
स०-अविद्यमानमुदात्तं यस्मिंस्तद् अनुदात्तम्, तस्मिन्-अनुदात्ते (बहुव्रीहि:)।
अनु०-उदात्त:, आदि:, लसार्वधातुकम्, अभ्यस्तानाम् इति चानुवर्तते । अन्वय:-अभ्यस्तानाम् अनुदात्ते लसार्वधातुके चादिरुदात्त: ।
अर्थ:-अभ्यस्तानां धातूनामनुदात्ते लसार्वधातुके च प्रत्यये परत आदिरुदात्तो भवति।
उदा०-दौति । जाति । दौति। जिहीत। मिमीत।
आर्यभाषा: अर्थ-(अभ्यस्तानाम्) अभ्यस्त धातुओं को (अनुदात्ते) उदात्त से रहित (लसार्वधातुके) ल-सार्वधातुक प्रत्यय परे होने पर (आदि., उदात्त:) आधुदात्त होता है।
उदा०-दौति । वह देता है। जाति । वह छोड़ता है। दधाति । वह धारण-पोषण करता है। जिहीते। वह गति करता है। मिमीते । वह मांपता है।
सिद्धि-(१) दोति । दा+लट् । दा+तिम् । दा+शप्+ति । दा+o+ति। दा-दा+ति। द-दा+ति । ददाति।
यहां डुदाञ् दाने' (जु०उ०) धातु से लट् प्रत्यय है। कर्तरि शप्' (३।११६८) से शप्' विकरण प्रत्यय और 'जुहोत्यादिभ्यः श्लुः' (२।४।७५) से उसको श्लु (लोप) होता है। श्लौ' (६।१।१०) से 'दा' धातु को द्वित्व होकर उभे अभ्यस्ताम्' (६।१।५) से इसकी अभ्यस्त संज्ञा होती है। इस सूत्र से इस अभ्यस्त-संज्ञक धातु को अनुदात्त ल-सार्वधातुक तिप्' प्रत्यय परे होने पर आधुदात्त होता है। तिप्’ ‘अनुदात्तौ सुपितौ (३।१।४) से अनुदात्त है।
(२) जाति । हा+लट्। हा+तिप्। हा+शप्+ति। हा+o+ति। हा-हा+ति। ह+हा+ति। झ-हा+ति। ज-हा+ति। जहाति।
यहां ओहाक् त्यागे' (जु०प०) धातु से लट् प्रत्यय है। कुहोश्चुः' (७।४।६२) से हकार को चुत्व झकार और 'अभ्यासे चर्च (८।४।५३) से जश् जकार होता है। स्वर-कार्य पूर्ववत्।