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आद्युदात्तः
जाग॑तु ।
षष्ठाध्यायस्य प्रथमः पादः
(३२) अभ्यस्तानामादिः । १८६ |
प०वि०-अभ्यस्तानाम् ६ । ३ आदि: १ । १ । अनु०-उदात्त:, लसार्वधातुकम् अचि, अनिटि इति चानुवर्तते । अन्वयः-अभ्यस्तानाम् अच्यनिटि लसार्वधातुके आदिरुदात्तः । अर्थः-अभ्यस्तानां धातूनाम् अजादावनिटि लसार्वधातुके प्रत्यये परत आदिरुदात्तो भवति। आदिरित्यनुवर्तमाने पुनरादिवचनं नित्यार्थं वेदितव्यम् ।
उदा-दद॑ति॒ दद॑तु । दध॑ति॒ दध॑तु । जक्ष॑ति, जक्ष॑तु । जाग्रति,
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आर्यभाषाः अर्थ- (अभ्यस्तानाम्) अभ्यस्त - संज्ञक धातुओं को (अचि) अजादि (अनिटि) इट् से रहित (लसार्वधातुके) ल-सार्वधातुक-संज्ञक प्रत्यय पर होने पर (आदि:, उदात्तः) आद्युदात्त होता है । 'आदि' पद की अनुवृत्ति में पुन: 'आदि' शब्द का कथन नित्यविधि के लिये है।
उदा०-दर्दति। वे सब देते हैं। ददेतु । वे सब देवें । दधेति । वे सब धारण-पोषण करते हैं। दध॑तु । वे सब धारण-पोषण करें। जक्षेति। वे सब खाते / हंसते हैं। जक्षेतु । वे सब खावें/ हंसें । जाग्रति । वे सब जागते हैं । जायेतु । वे सब जागें ।
सिद्धि - (१) ददेति । दा+लट् । दा+झि । दा+शप्+झि । दा-दा+0+अति । द-द्+अति । ददति ।
यहां 'डुदाञ् दानें' (जु०उ० ) धातु से 'लट्' प्रत्यय है । कर्तरि शर्पा' ३ | १ | ६८) से 'शप्' विकरण प्रत्यय और उसे जुहोत्यादिभ्यः श्लु:' ( २/४/७५ ) से श्लु (लोप) होता है। 'श्लौ' से 'दा' धातु को द्वित्व होता है। 'उभे अभ्यस्तम्' (६ 1814) से इसकी अभ्यस्त संज्ञा होने से इस सूत्र से इसे आद्युदात्त होता है। 'अदभ्यस्तात्' (७ 1१1४ ) से झि' के 'झू' के स्थान में 'अत्' आदेश होता है । 'ह्रस्वः' (७/४/५९) से अभ्यास को ह्रस्व (अ) और 'आतो लोप इटि च' (६/४/६४) से आकार का लोप होता है।
(२) दध॑ति । 'डुधाञ् धारणपोषणयो:' (जु०उ०) धातु से पूर्ववत् ।
(३) जक्षति | 'जक्ष भक्षहसनयो:' ( अदा०प० ) । 'जक्षित्यादय: षट्' (६ | १ |६ ) से 'जक्ष' धातु की अभ्यस्त संज्ञा है। स्वर- कार्य पूर्ववत् है ।