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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् ___ यहां इण् गतौ (अदा०प०) धातु से पूर्ववत् लिट्' प्रत्यय और उसके स्थान में तिप्' और उसे पूर्ववत् णल' आदेश होता है। 'अचो णिति (७।२।११५) से अंग को वृद्धि, 'द्विर्वचनेऽचि' (१।११५९) से स्थानिवद्भाव मान होकर लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६।१८) से द्वित्व-विधि और इस सूत्र से प्रथम एकाच 'इ' को द्वित्व होता है। 'अभ्यासस्यासवर्णे (६।४।७८) से अभ्यास के इकार को 'इयङ्' आदेश होता है।
(३) आर। ऋ+लिट् । ऋ+तिम्। ऋ+णल्। आर्+अ। ऋ+आर्+अ। अर्+आर्+अ। अ+आ+अ। आर्+अ। आर।
यहां ऋ गतौ' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् 'लिट्' प्रत्यय, उसके लकार को 'तिप्' आदेश और उसे 'णल' आदेश होकर अचो णिति (७।२।११५) से अंग को वृद्धि होती है। लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६।१।८) से द्वित्व-विधि और द्विवचनेऽचिं' (१।११५९) से स्थानिवद् भाव होकर इस सूत्र से प्रथम एकाच 'ऋ' को द्वित्व होता है। उरत् (७।४।६६) से अभ्यास ऋ को अकार आदेश, उरण रपरः' (१।१।५१) से रपरत्व, 'हलादि: शेष:' (७।४।६०) से आदि हल का शेषत्व होकर 'अक: सवर्णे दीर्घः (६।१।९९) से सवर्ण-दीर्घत्व होता है। द्वितीयस्यैकाचः
(२) अजादेर्द्वितीयस्य।२। प०वि०-अजादे: ६।१ द्वितीयस्य ६।१। स०-अच् आदिर्यस्य स:-अजादिः, तस्य-अजादे: (बहुव्रीहि:)। अनु०-एकाच:, द्वे इति चानुवर्तते। अन्वय:-अजादेर्द्वितीयस्यैकाचो द्वे।
अर्थ:-अजादेर्धातोरवयवस्य द्वितीयस्यैकाचो द्वे भवत: इत्यधिकारोऽयम्, प्राक्सम्प्रसारणविधानात् ष्यङः सम्प्रसारणं पुत्रपत्योस्तत्पुरुषे (६।१।१३)।
उदा०-अटिटिषति । अशिशिषति । अरिरिषति।
आर्यभाषा: अर्थ-(अजादेः) अच् जिसके आदि में है उस धातु के अवयव भूत (द्वितीयस्य) द्वितीय एकाच वाले समुदाय को (द्व) द्वित्व होता है। यह 'ष्यङः सम्प्रसारणं पुत्रपत्योस्तत्पुरुषे' (६।१।१३) से पहले-पहले अधिकार है।
उदा०-अटिटिषति । वह घूमना चाहता है। अशिशिषति । वह खाना चाहता है। अरिरिषति । वह प्राप्त करना चाहता है।