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________________ षष्ठाध्यायस्य प्रथमः पादः द्विर्वचनप्रकरणम् प्रथमस्यैकाचः (१) एकाचो द्वे प्रथमस्य।१। प०वि०-एकाच: ६।१ द्वे १।२ प्रथमस्य ६।१ । स०-एकोऽच् यस्मिन् स एकाच्. तस्य-एकाच: (बहुव्रीहि:)। अन्वय:-प्रथमस्य एकाचो द्वे।। अर्थ:-प्रथमस्य एकाचो द्वे भवत इत्यधिकारोऽयम्, प्राक् सम्प्रसारणविधानात् ष्यङ: सम्प्रसारणं पुत्रपत्योस्तत्पुरुषे (६।१।१३) । उदा०-स जजागार । स पपाठ। स इयाय। स आर। आर्यभाषा: अर्थ-(प्रथमस्य) प्रथम (एकाच:) एक अच्वाले समुदाय को द्वि) द्वित्व होता है। यह 'प्यङ: सम्प्रसारणं पुत्रपत्योस्तत्पुरुषे (६।१।१३) से पहले-पहले अधिकार है। उदा०-स जजागार । वह जागा। स पपाठ। उसने पढ़ा । स इयाय । उसने गति की। स आर। उसने गति की. वह गया। सिद्धि-(१) जजागार । जागृ+लिट् । जागृ+तिप्। जागृ+णल। जागार्+अ। जाग्+जागार्+अ। जा+जागा+अ। जजागर। यहां जागृ निद्राक्षये' (अदा०प०) धातु से 'परोक्षे लिट्' (३।२।११५) लिट् प्रत्यय, तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से लिट् लकार को तिम्' आदेश, 'परमैपदानां णलतुसुस्' (३।४।८२) से तिप्' के स्थान में णल' आदेश, 'अचो णिति' (७।२।११५) से अंग को वृद्धि होती है। लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६।१८) से द्वित्व-विधि और इस सूत्र से जागार' के प्रथम एकाच अवयव को द्वित्व (जाग्+जाग आर्) होता है। हलादि: शेष:' (७।४।६०) से अभ्यास के आदि हल का शेषत्व और ह्रस्व:' (७।४।५९) से अभ्यास को ह्रस्व (ज) होता है। ऐसे ही पठ व्यक्तायां वाचि (भ्वा०प०) धातु से-पपाठ। (२) इयाय । इण्+लिट् । इ+तिम् । इ+णल् । ऐ-अ। इ+आय्+अ । इयड्+आय्+अ। इय्+आय+अ। इयाय।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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