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________________ १६४ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अन्तोदात्त: (७) तद्धितस्य ।१६१। वि०-तद्धितस्य ६।१। अनु०-अन्त:, उदात्त:, चित इति चानुवर्तते। अन्वय:-तद्धितस्य चितोऽन्त उदात्त: । अर्थ:-तद्धितसंज्ञकस्य चित्प्रत्ययस्यान्त उदात्तो भवति । उदा०-कौञ्जायना:। भौजायनाः । आर्यभाषा: अर्थ-(तद्धितस्य) तद्धित-संज्ञक (चित:) चित् प्रत्यय का (अन्तः) अन्तिम अच् (उदात्त:) उदात्त होता है। उदा०-कौञ्जायना: । भौजायनाः । सिद्धि-कौजायना: । कुञ्ज+च्यञ् । कौङ्ग्+आयन । कौञ्जायन+जस् । कौञ्जायनाः । यहां कुञ्ज' शब्द से 'गोत्रे कुजादिभ्यश्च्म (४।१।९८) से च्फञ् प्रत्यय है। इसके चित् होने से इस सूत्र से इसका अन्तोदात्त स्वर होता है। इसके जित्' होने से नित्यादिर्नित्यम्' (६।१।१९१) से नित्य आधुदात्त स्वर प्राप्त होता है किन्तु उसे बाधकर इस सूत्र से चित्-स्वर=अन्तोदात्त ही होता है। प्रत्यय के जित होने से तद्धितेष्वचामादेः' (७।२।११७) से अंग को आदिवृद्धि होती है। 'आयनेय०' (७।१।२) से 'फ्’ को 'आयन्' आदेश होता है। ऐसे ही 'भुञ्ज' शब्द से-भौजायनाः । अन्तोदात्तः (E) कितः ।१६२। वि०-कित: ६।१। स०-क इद् यस्य स कित्, तस्य-कित: (बहुव्रीहिः) । अनु०-अन्त:, उदात्त:, तद्धितस्य इति चानुवर्तते। अन्वय:-तद्धितस्य कितोऽन्त उदात्त: । अर्थ:-तद्धितसंज्ञकस्य कित्-प्रत्ययस्यान्त उदात्तो भवति । उदा०-नाडायन:, चारायणः । आक्षिक:, शालाकिकः । आर्यभाषा: अर्थ-(तद्धितस्य) तद्धित (कित्) कित् प्रत्यय का (अन्तः) अन्तिम अच् (उदात्त:) उदात्त होता है।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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