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________________ १६३ षष्टाध्यायस्य प्रथमः पादः । (४) गोपायति । यहां 'गुपू रक्षणे' (भ्वा०प०) धातु से गुपूधूप०' (३।१।२८) से स्वार्थ में 'आय' प्रत्यय होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। (५) याति। यहां या प्रापणे (अदा०प०) धातु से लट्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। अन्तोदात्तः (६) चितः।१६०। वि०-चित: ६।१। स०-च इद् यस्य स चित्, तस्य-चित: (बहुव्रीहि:)। अनु०-अन्त:, उदात्त इति चानुवर्तते। अन्वय:-चितोऽन्त उदात्तः। अर्थ:-चित:=प्रत्ययान्तस्य शब्दस्यान्त उदात्तो भवति । उदा०-भगुरम्। भासुरम्। मेदुरम् । कुण्डिना: । आर्यभाषा: अर्थ- (चित:) चित्-प्रत्ययान्त शब्द का (अन्तः) अन्तिम अच् (उदात्त:) उदात्त होता है। उदा०-भगुरम् । टूटनेवाला। भासुरम्। चमकनेवाला। मेदुरम् । स्नेहवाला (चिकणा)। कुण्डिना: । कुण्डिनी ऋषिका के बहुत पौत्र। सिद्धि-(१) भगुरम् । भञ्ज्+घुरच् । भञ्ज्+उर। भगु+सु । भगुरम् । यहां 'भञ्जो आमर्दने' (रुधा०प०) धातु से 'भञ्जभासमिदो घुरच्' (३।२।१६१) से 'घुरच्' प्रत्यय है। इसके चित् होने से इस सूत्र से इसे अन्तोदात्त होता है। अनुदात्तं पदमेकवर्जम्' (६।१।१५३) से शेष पद अनुदात्त होता है। 'चजो: कु घिण्ण्यतो:' (७।३ ।५२) से जकार को कुत्व गकार होता है। (२) भासुरम् । 'भासू दीप्तौ' (भ्वा०आ०) पूर्ववत् । (३) मेदुरम् । त्रिमिदा स्नेहने' (भ्वा०आ०) पूर्ववत् । (४) कुण्डिनाः। कुण्डिनी+यञ्+जस् । कुण्डिनच्+o+अस्। कुण्डिन+अस् । कुण्डिनाः। ___ यहां कुण्डिनी प्रातिपदिक से 'गर्गादिभ्यो यज' (४।१।१०५) से गोत्रापत्य अर्थ में 'यञ्' प्रत्यय होता है। कुण्डिनी के बहुत पौत्र अर्थ की विवक्षा में 'आगस्त्यकौण्डन्ययोरगस्तिकुण्डिनच्' (२।४।७०) से 'कुण्डिनच्' आदेश होता है। इसके चित् होने से इस सूत्र से इसका अन्तोदात्त स्वर होता है।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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