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षष्ठाध्यायस्य प्रथमः पादः उदा०-(चतुष्पात्) अपस्किरते वृषभो हृष्टः। अपस्किरते श्वाऽऽश्रयार्थी। (शकुनि:) अपस्किरते कुक्कुटो भक्ष्यार्थी।
आर्यभाषा: अर्थ- (संहितायाम्) सन्धि-विषय में (अपात्) अप-उपसर्ग से उत्तर (चतुष्पात्-शकुनिषु) चतुष्पात् चौपाये और शकुनि-पक्षी (दोपाये) विषयक (आलेखने) खोदना अर्थ में विद्यमान (किरतौ) 'कृ' धातु परे होने पर (कात्) क-वर्ण से (पूर्व:) पहले (सुट्) सुट् आगम होता है।
उदा०-(चतुष्पात्) अपस्किरते वृषभो हृष्टः । मस्त हुआ बैल मिट्टी को खोदकर इधर-उधर फैकता है। अपस्किरते श्वाश्रयार्थी। आश्रय का इच्छुक श्वा=कुत्ता मिट्टी को खोदकर बाहर फेंकता है। (शकुनि) अपस्किरते कुक्कुटो भक्ष्यार्थी। भक्ष्य-दाना आदि भक्ष्यपदार्थ का इच्छुक कुक्कुट मुर्गा मिट्टी को खोदकर पीछे फेंकता है।
सिद्धि-अपस्किरते। अप+कृ+लट् । अप+सुट्+कृ+त। अप+स्+कि+श+त। अप+स्+कि+अ+ते। अपस्किरते।
यहां अप-उपसर्ग से उत्तर चतुष्पाद् एवं शकुनि-पक्षीविषयक आलेखन खोदना अर्थ में विद्यमान क' धातु से लट्' प्रत्यय है। इस सूत्र से उक्त लेखनार्थक 'कृ' धातु के क-वर्ण से पूर्व सुट् आगम होता है। वा०-'किरतेर्हर्पजीविकाकुलायकरणेष्विति वक्तव्यम् (१।३।२१) से 'कृ' धातु से आत्मनेपद होता है। तुदादिभ्य: शः' (३।१।७७) से 'श' विकरण प्रत्यय, ऋत इद् धातो:' (७।१।१००) से धातु को इत्त्व और उरण रपरः' (१।१।५०) से इसे रपरत्व होता है। निपातनम् (सुट)
(७०) कुस्तुम्बुरूणि जातिः।१४१। प०वि०-कुस्तुम्बुरूणि १।३ जाति: १।१।
स०-कुत्सितं तुम्बुरु इति कुस्तुम्बुरु, तानि-कुस्तुम्बुरूणि (तत्पुरुषसमास:)।
अनु०-संहितायाम्, सुट् इति चानुवर्तते। अन्वय:-संहितायां कुस्तुम्बुरूणि सुड् जाति: ।
अर्थ:-संहितायां विषये 'कुस्तुम्बुरूणि' इत्यत्र सुडागमो निपात्यते, जातिश्चेत् तद् भवति।
उदा०-कुस्तुम्बुरूणि नाम ओषधिजाति:=धान्यकम्। कुत्सितानि तुम्बुरूणि कुस्तुम्बुरूणि । तुम्बुरूशब्देनात्र तिन्दुकीफलान्युच्यन्ते, समासेन च तेषां कुत्सा=निन्दा विधीयते।