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पाणिनीय अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-(१) देवदत्त३ अत्र । यहां देवदत्त' शब्द दूराद्धृते च' (८।२।८५) से प्लुत है-देवदत्त३ । यह अच्-वर्ण (अ) परे होने पर इस सूत्र से प्रकृतिभाव से रहता है अर्थात् 'अक: सवर्णे दीर्घः' (६।१।९८) से प्राप्त दीर्घरूप (आ) एकादेश नहीं होता है। यहां दूराद्धृते च' (८।२।८५) से किया गया-प्लुत-कार्य इस सूत्र से प्रकृतिभाव करने में पूर्वत्रासिद्धम्' (८।२।१) से असिद्ध नहीं होता है क्योंकि यह प्रकृतिभाव प्लुत के ही आश्रित है।
(२) यज्ञदत्त३ इदम् । यहां यज्ञदत्त शब्द पूर्ववत् प्लुत है-यज्ञदत्त३ । यह अच्-वर्ण (इ) परे होने पर इस सूत्र से प्रकृतिभाव से रहता है अर्थात् 'आद्गुणः' (६।१।८५) से प्राप्त गुणरूप (ए) एकादेश नहीं होता है।
(३) अग्नी इति । 'आनी' शब्द की 'ईदूदेद्विवचनं प्रगृह्यम् (१।१।११) से प्रगृह्य संज्ञा है। अत: यह अच्-वर्ण (इ) परे होने पर इस सूत्र से प्रकृतिभाव से रहता है अर्थात् 'अक: सवर्णे दीर्घः' (६।१।९८) से प्राप्त दीर्घरूप (ई) एकादेश नहीं होता है।
(४) वायू इति । यहां वायू' शब्द की पूर्ववत् प्रगृह्य संज्ञा है। अत: यह अच्-वर्ण (इ) परे होने पर इस सूत्र से प्रकृतिभाव से रहता है अर्थात् 'इको यणचि' (६।१।७५) से प्राप्त इक् (उ) के स्थान में यण् (व्) आदेश नहीं होता है।
(५) खट्वे इति। यहां खट्वे' शब्द की पूर्ववत् प्रगृह्य संज्ञा है। अत: यह अच्-वर्ण (इ) परे होने पर प्रकृतिभाव से रहता है अर्थात् 'एचोऽयवायाव:' (६।१।७६) से प्राप्त अय्-आदेश नहीं होता है। ऐसे ही-माले इति । प्रकृतिभावः
(५४) आडोऽनुनासिकश्छन्दसि ।१२५ । प०वि०-आङ: ६।१ अनुनासिक: १।१ छन्दसि ७।१। अनु०-संहितायाम्, छन्दसि, प्रकृत्या, अचि इति चानुवर्तते। अन्वय:-संहितायाम् अचि आङोऽनुनासिक: प्रकृत्या।
अर्थ:-संहितायां छन्दसि च विषयेऽचि परत आङोऽनुनासिकादेशो भवति, स च प्रकृत्या भवति।
उदा०-अभ्र आँ अप: (ऋ० ५।४।८।१)। गभीर आँ उग्रपुत्रे जिघांसत: (ऋ० ८।६७।११)।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में और (छन्दसि) वेदविषय में (अचि) अच्-वर्ण परे होने पर (आङ:) आङ् शब्द को (अनुनासिक:) अनुनासिक आदेश होता है और वह (प्रकृत्या) प्रकृतिभाव से रहता है।