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षष्टाध्यायस्य प्रथमः पादः प्रकृतिभावः
(४५) यजुष्युरः।११६। प०वि०-यजुषि ७।१ उर: १।१। अनु०-संहितायाम्, एङ:, अति, प्रकृत्या इति चानुवर्तते । अन्वय:-संहितायां यजुषि एडन्त उरोऽति प्रकृत्या।
अर्थ:-संहितायां यजुषि च विषये एडन्त उर:शब्दोऽति परत: प्रकृत्या भवति।
उदा०-उरो अन्तरिक्षं सजू: (तै०सं० १।३।८।१)। यजुषि पादानामभावादनन्त:पदार्थमिदं वचनं वेदितव्यम् ।
आर्यभाषा: अर्थ- (संहितायाम्) संहिता और (यजुषि) यजुर्वेद विषय में (यड:) एडन्त (उर:) उर: शब्द (अति) अ-वर्ण परे होने पर (प्रकृत्या) प्रकृतिभाव से रहता है।
उदा०-उरो अन्तरिक्ष सजू: (तै०सं० १।३।८।१)। यजुर्वेद में पाद व्यवस्था न होने से यह अनन्त: पाद के लिये कथन किया गया है।
सिद्धि-उरो अन्तरिक्ष । यहां याजुष विषय में एडन्त उर: शब्द (उरो) से अ-वर्ण परे होने पर इस सूत्र से प्रकृतिभाव होता है। प्रकृतिभावः(४६) आपो जुषाणो वृष्णो वर्षिष्ठेऽम्बेऽम्बालेऽम्बिकेपूर्वे ।११७।
प०वि०-आपो ११ (सु-लुक्) जुषाणो १।१ (सु-लुक्) वृष्णो ११ (सु-लुक्) वर्षिष्ठे १।१ (सु-लुक्) अम्बे ११ (सु-लुक्) अम्बाले ११ (सु-लुक्) अम्बिकेपूर्वे १।२।।
स०-अम्बिके शब्दात् पूर्वम्-अम्बिकेपूर्वम्, ते-अम्बिकेपूर्वे (पञ्चमीतत्पुरुषः)।
अनु०-संहितायाम्, एङ:, अति, प्रकृत्या, यजुषि इति चानुवर्तते। ___ अन्वय:-संहितायां यजुषि आपो, जुषाणो, वृष्णो, वर्षिष्ठे, अम्बिकेपूर्वे अम्बे, अम्बाले इत्यत्र एङ् अति प्रकृत्या।