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षष्ठाध्यायस्य प्रथमः पादः
१२१ स०-पादस्यान्तः (मध्ये) अन्त:पादम् 'अव्ययं विभक्ति०' (२।१।६) इति सप्तमीविभक्त्यर्थेऽव्ययीभावः। अन्त:शब्दोऽव्ययमधिकरणभूतं मध्यमार्थमाचष्टे। वश्च यश्च तौ व्यौ, व्यौ परौ यस्मात् स व्यपर:, न व्यपर:-अव्यपरः, तस्मिन्-अव्यपरे (इतरेतरयोगद्वन्द्वगर्भितबहुव्रीहिः)। __ अनु०-संहितायाम्, एङः, अति इति चानुवर्तते। 'एङ:' इति पञ्चम्यन्तं पदमर्थवशादिह प्रथमायां विपरिणम्यते।
अन्वयः-संहितायाम् एङ् प्रकृत्या व्यपरेऽति अन्त:पादम् ।
अर्थ:-संहितायां विषये य एङ् स प्रकृत्या भवति, अवकारयकारपरकेऽति परत:, अन्त:पादं चेत् ।।
उदा०-ते अग्रे अश्वमयुजन् (यजु० ९१७) । ते अस्मिन् जवमादधुः (यजु० ९।७)। उपप्रयन्तो अध्वरम् (ऋ० १।७४।१)। शिरो अपश्यम् (ऋ० १।१६३ ।६) । सुजाते अश्वसूनृते (ऋ० ५।७९ १)। अध्वर्यो अद्रिभिः सुतम् (ऋ० ९ ५१।१) ।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में जो (एड:) एड् वर्ण है वह (प्रकृत्या) प्रकृतिभाव से रहता है (अव्यपरे) वकार-यकारपरक वर्जित (अति) अ-वर्ण परे होने पर (अन्त:पादम्) यदि वह मन्त्र के पादचरण के मध्य में हो।
उदा०-उदाहरण संस्कृत-भाग में देख लेवें।
सिद्धि-ते अग्रे०। यहां ते' शब्द के एङ् वर्ण (ए) से उत्तर अ-वर्ण है और ऋचा के पाद-चरण के मध्य में है, अत: वह इस सूत्र से प्रकृतिभाव से रहता है अर्थात् इस संहिता-प्रकरण में विहित कार्य नहीं होता है। यहां 'एङ: पदान्तादति' (६।१।१०६) से प्राप्त पूर्वरूप एकादेश नहीं होता है। ऐसे ही ते अस्मिन् जवमादधुः' (यजु० ९७) इत्यादि।
विशेष: (१) प्रकृति शब्द का अर्थ स्वभाव एवं कारण है, अपने स्वरूप अर्थ में रहना है। अन्त: शब्द अव्यय है और यह मध्यम अर्थ का वाचक है। पाद शब्द से ऋचा के पाद का ही ग्रहण किया जाता है, श्लोक के पाद (चरण) का नहीं।
(२) कई वैयाकरण इस सूत्र को नान्त:पादमव्यपरे' ऐसा पढ़ते हैं। उनका मत है कि ऋचा पाद के मध्य में कोई संहिता-कार्य नहीं होता है।