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उकार-एकादेशः
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
( ३६ ) ऋत उत् । ११० ।
प०वि० - ऋत: ५ ।१ उत् १ ।१ । अनु०-संहितायाम्, एकः, पूर्वपरयोः, अति, ङसिङसोरिति चानुवर्तते । अन्वयः-संहितायाम् ऋतो ङसिङसोरति पूर्वपरयोरुद् एकः । अर्थ:-संहितायां विषये ऋकारादुत्तरयोङसिङसोरति परतः पूर्वपरयोः स्थाने उकारादेशो भवति ।
उदा०- (ङसि) होतुरागच्छति ।
( ङस् ) होतुः स्वम् ।
आर्यभाषाः अर्थ- (संहितायाम् ) सन्धि - विषय में (ऋत:) ऋ - वर्ण से उत्तर (ङसिङसो: ) ङसि और ङस् प्रत्ययविषयक (अति) अ-वर्ण परे होने पर (पूर्वपरयोः) पूर्व-पर के स्थान में (उत्) उकार आदेश होता है।
उदा०- -(ङसि) होतुरागच्छति । होता से आता है। (ङस् ) होतुः स्वम् । होता का स्व=धन | होता = ऋग्वेद का ज्ञाता ऋत्विक् ।
सिद्धि - होतु: । होतृ + ङसि । होतृ+अस् । होतुरस् । होतु । होतुः ।
यहां 'होतृ' शब्द से 'ङसि' प्रत्यय है। इस सूत्र से होतृ शब्द के ऋ -वर्ण से उत्तर ङसि प्रत्ययविषयक अ-वर्ण परे होने पर पूर्व-पर के स्थान में उकार रूप एकादेश होता है। जो दो षष्ठी-निर्दिष्टों के स्थान में होता है उसका उनमें से किसी एक से कथन किया जा सकता है । पुत्र का माता वा पिता किसी एक से कथन हो सकता है । अत: यहां एक 'ऋ' के स्थान में उकार - आदेश मानकर 'उरण् रपरः ' (१1१140 ) से उकार आदेश रपर होता है और 'रात् सस्य' (८/२/२४ ) से सकार का लोप होता है । 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' (८ | ३ |१५ ) से रेफ को विसर्जनीय आदेश होता है।
सूचना:- 'एकः पूर्वपरयोः' (६ । १।८४) का अधिकार समाप्त हुआ। उकार आदेश:
( समाहारद्वन्द्वः) ।
(४०) ख्यत्यात् परस्य । १११ ।
प०वि०-ख्य-त्यात् ५ ।१ परस्य ६ ।१ ।
स०-ख्यश्च त्यश्च एतयोः समाहारः - ख्यत्यम्, तस्मात्-ख्यत्यात्
अनु०-संहितायाम्, अति, ङसिङसो, उद् इति चानुवर्तते ।