________________
१०५
षष्टाध्यायस्य प्रथमः पादः सिद्धि-(१) भिन्युः । भिद्+लिङ् । भिद्+यासुट्+ल। भिद्+यासुट्+झि। भिश्नम् +यासुट्+जुस् । भिन दु+या+उस् । भिन्द्+या०+उस् । भिन्द्या+उस् । भिन्द्युः ।
___ यहां 'भिदिर विदारणे' (रुधा०प०) धातु से लिङ् प्रत्यय, यासुट् परस्मैपदेषूदात्तो ङिच्च' (३।४।१०३) से यासुट् आगम, 'तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से लकार के स्थान में झि' आदेश, झेर्जुस्' (३।४।१०८) से झि' के स्थान में जुस् आदेश और 'रुधादिभ्यः श्नम् (३।१।७८) से श्नम् विकरण-प्रत्यय है। 'श्नसोरल्लोप:' (६।४।१११) से 'श्नम्' के अकार का लोप और लिङ: सलोपोऽनन्त्यस्य (७/२/७९) से यासुट' के सकार का लोप होता है। 'भिन्द्या+उस्' ऐसी स्थिति में अपदान्त अ-वर्ण से उत्तर उस् प्रत्यय परे होने पर इस सूत्र से पूर्व-पर के स्थान में पररूप (उ) एकादेश होता है। 'आद् गुण:' (६।१।८५) से गुणरूप (ओ) एकादेश प्राप्त था। ऐसे ही 'छिदिर् द्वैधीकरणे' (रुधा०प०) धातु से-छिन्द्युः ।
(२) अदुः । दा+लुङ्। अट्+दा+च्लि+ल। अ+दा+सिच्+झि। अ+दा+स्+उस् । अ+दा+o+उस् । अ+दा+उस्। अदुः।
___ यहां डुदाञ् दाने (जु०उ०) धातु से लुङ् प्रत्यय, 'च्लि लुङि' (३।१।४३) से च्लि' प्रत्यय, च्ले: सिच् (३।१।४४) से च्लि के स्थान में सिच् आदेश होता है। झेर्जुस्' (३।४।१०८) से 'झि' के स्थान में जुस्' आदेश होता है। 'गातिस्थाघु०' (२१४७७) से सिच्' का लुक होकर 'अ+दा+उस्' इस स्थिति में अपदान्त अ-वर्ण से उत्तर 'उस्' प्रत्यय परे होने पर इस सूत्र से पूर्व-पर के स्थान में पररूप (उ) एकादेश होता है।
(३) अयुः। या+लङ् । अट्+या+झि। अ+या+शप्+झि। अ+या+o+जुस् । अ+या+उस्। अयुः।
यहां या प्रापणे' (अदा०प०) धातु से लङ् प्रत्यय है। 'तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से लकार के स्थान में 'झि' आदेश, कर्तरि शम्' (३।१।६८) से शप' विकरण-प्रत्यय और 'अदिप्रभृतिभ्यः शप:' (२।२।७२) से शप्' का लुक् होता है। लङः शाकटायनस्यैव' (३।४।११) से 'झि' के स्थान में 'जुस्' आदेश होता है। 'अ+या+उस्' ऐसी स्थिति में अपदान्त अ-वर्ण से उत्तर उस्' प्रत्यय परे होने पर इस सूत्र से पूर्व-पर के स्थान में पररूप (उ) एकादेश होता है। पररूप-एकादेशः
(२६) अतो गुणे।६७। प०वि०-अत: ५ ।१ गुणे ७।१।
अनु०-संहितायाम्, एक:, पूर्वपरयोः, पररूपम्, अपदान्तादिति चानुवर्तते।