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षष्ठाध्यायस्य प्रथमः पादः वान्त-आदेशः
(६) धातोस्तन्निमित्तस्यैव।८०। प०वि०-धातो: ६१ तन्निमित्तस्य ६।१ एव अव्ययपदम्।
स०- स निमित्तं यस्य स तन्निमित्तः, तस्य-तन्निमित्तस्य (बहुव्रीहि:)।
अनु०-संहितायाम्, एच:, वान्त:, यि, प्रत्यये इति चानुवर्तते। अन्वय:-संहितायां यि प्रत्यये धातोस्तन्निमित्तस्यैवैचो वान्तः ।
अर्थ:-संहितायां विषये यकारादौ प्रत्यये परतो धातोस्तंन्निमित्तस्य= यकारादिप्रत्ययनिमित्तस्यैव एच: स्थाने वान्त आदेशो भवति ।
उदा०-(अव) लव्यम्, पव्यम्। (आव) अवश्यलाव्यम्, अवश्यपाव्यम्।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (यि) यकारादि प्रत्यय परे होने पर (धातोः) धातु के (तन्निमित्तस्य) उस यकारादि प्रत्यय निमित्तक (एव) ही (एच:) एच ओ और औ के स्थान में (वान्तः) वान्त-अव् और आव् आदेश होते हैं।
उदा०-(अव) लव्यम्। छेदन करने योग्य। पव्यम् । पवित्र करने योग्य। (आव) अवश्यलाव्यम् । अवश्य छेदन करने योग्य। अवश्यपाव्यम् । अवश्य पवित्र करने योग्य।
सिद्धि-(१) लव्यम् । लू+यत् । लो+य । ल अव्+य। लव्य+सु । लव्यम् ।
यहां लूज़ छेदने (क्रया उ०) धातु से 'अचो यत्' (३।१।९७) से 'यत्' प्रत्यय है। 'सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।१।८४) से लू इगन्त अंग को गुण (ओ) होता है। यह 'लू' धातु का ओकार यकारादि प्रत्ययनिमित्तक है। अत: इस सूत्र से उसे वान्त (अव) आदेश होता है। ऐसे ही पून पवने' (या उ०) धातु से-पव्यम् ।
(२) अवश्यलाव्यम् । अवश्यम्+लू+ण्यत् । अवश्यम्+लौ+य। अवश्यम् ल् आव्+य। अवश्यलाव्य+सु। अवश्यलाव्यम् ।
यहां 'अवश्यम्' उपपद होने पर लू छेदने (क्रया उ०) धातु से 'ओरावश्यके' (३६ ।१ ।१२५) से ण्यत्' प्रत्यय है। 'अचो मिति' (७।२।११५) से 'लू' को वृद्धि (औ) होती है। यह 'लू' धातु का औकार यकारादि प्रत्ययनिमित्तक है। अत: इस सूत्र से उसे वान्त (आव) आदेश होता है। ऐसे ही पूज पवने (ऋयाउ०) धातु से-अवश्यपाव्यम्।