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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-द्विमास्य: । द्विमास+अम्+यप्। द्विमास्+य। द्विमास्य+सु । द्विमास्यः ।
यहां द्वितीया-समर्थ, कालविशेषवाची, द्विगुसंज्ञक, मासान्त द्विमास' शब्द से भूत-अर्थ में तथा वय: आयु अर्थ अभिधेय में इस सूत्र से यप् प्रत्यय है। 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। प्रत्यय के पित् होने से इगन्तकालकपालभगालशरावेषु द्विगौ' (६।२।२९) से पूर्वपद-प्रकृति स्वर होता है-द्विमास्यः । ऐसे ही-त्रिमास्यः । ण्यत्+यप्+ठञ्
(४) षण्मासाण्ण्यच्च ८२। प०वि०-षण्मासात् ५।१ ण्यत् १।१ च अव्ययपदम् । अनु०-कालात्, तम्, भूत:, यप्, ठञ्, वयसि इति चानुवर्तते। अन्वय:-तम् कालात् षण्मासाद् भूतो ण्यत्, यप्, ठञ् च, वयसि।
अर्थ:-तम् इति द्वितीयासमर्थात् कालविशेषवाचिन: षण्मास-शब्दात् प्रातिपदिकाद् भूत इत्यस्मिन्नर्थे ण्यत्, यप, ठञ् च प्रत्यया भवन्ति, वयस्यभिधेये।
उदा०-(ण्यत्) षण् मासान् भूत:-षाण्मास्य: । (यत्) षण्मास्यः । (ठक्) षाण्मासिकः।
आर्यभाषा: अर्थ-(तम्) द्वितीया-समर्थ (कालात्) कालविशेषवाची (षण्मासात्) षण्मास प्रातिपदिक से (भूत:) हो चुका, अर्थ में (ण्यत्) ण्यत् (यप्) यप् (च) और (ठञ्) ठञ् प्रत्यय होते हैं (वयसि) यदि वहां वय: आयु अर्थ अभिधेय हो।
उदा०-(ण्यत्) जो षण्मास-छ: मास का हो चुका है वह-पाण्मास्य। (यप्) षण्मास्य। (ठञ्) षाण्मासिक।
सिद्धि-(१) पाण्मास्यः। षण्मास+शस्+ण्यत् । पाण्मास्+य। पाण्मास्य+सु। पाण्मास्यः।
यहां द्वितीया-समर्थ, कालविशेषवाची षण्मास' शब्द से भूत-अर्थ में इस सूत्र से 'ण्यत्' प्रत्यय है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है।
(२) षण्मास्यः । यहां पूर्वोक्त षण्मास' शब्द से भूत-अर्थ में इस सूत्र से यत्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(३) पाण्मासिकः । यहां पूर्वोक्त षण्मास' शब्द से भूत-अर्थ में प्राग्वतेष्ठ (५।१।१८) से यथाविहित ठञ्' प्रत्यय भी अभीष्ट है। पूर्ववत् ठू' के स्थान में 'इक्' आदेश, अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है।
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