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पञ्चमाध्यायस्य प्रथमः पादः
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(४) द्विकुलिजिकी। यहां 'द्विकुलिज' शब्द से पूर्ववत् ष्ठन्' प्रत्यय है। प्रत्यय के षित् होने से 'षिद्गौरादिभ्यश्च' (४|१|४१ ) से स्त्रीत्व - विवक्षा (कटाही ) में 'ङीष्' प्रत्यय होता है।
विशेष: (१) पाणिनि ने 'प्रस्थ' शब्द का प्रयोग नहीं किया है। कौटिल्य के समय वह बहुत चालू शब्द था । साढ़े बारह पल या ५० तोले या ढाई पाव की तोल 'प्रस्थ' कहलाती थी । अनुमान है कि पाणिनि ने उसी के लिये 'कुलिज' शब्द का प्रयोग किया है (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० २४४) ।
(२) संस्कृत भाषा का 'कुलि' शब्द 'हाथ' का वाचक है ( शब्दार्थकौस्तुभ ) उससे उत्पन्न परिमाण 'कुलिज' कहलाता है । अत: 'कुलिज' शब्द का अर्थ अञ्जलि (आंजळा) है। अस्य अर्थप्रत्ययविधिः
यथाविहितं प्रत्ययः
(१)
सोऽस्यांशवस्नभृतयः । ५५ ।
प०वि० स: १ ।१ अस्य ६ । १ अंश - वस्न - भृतयः १।३। स०-अंशश्च वस्नं च भृतिश्च ता अंशवस्नभृतयः (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । अन्वयः - स प्रातिपदिकाद् अस्य यथाविहितं प्रत्यय:, अंशवस्नभृतयः । अर्थ:-इति प्रथमासमर्थात् प्रातिपदिकाद् अस्येति षष्ठ्यर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति यत् प्रथमासमर्थम् अंशवस्नभृतयश्चेत् ता भवन्ति । अंश:=भागः। वस्नम्=मूल्यम् । भृतिः=वेतनम् |
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उदा०-पञ्च अंशो वस्त्रं भृतिर्वाऽस्य - पञ्चकः । सप्तकः । साहस्रः । आर्यभाषा: अर्थ- (सः) प्रथमा-समर्थ प्रातिपदिक से (अस्य) षष्ठी-विभक्ति के अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है (अंशवस्नभृतयः ) जो प्रथमा-समर्थ है यदि वह अंश=भाग, वस्न=मूल्य ( लागत) और भृति- वेतन हो ।
उदा० - पञ्च = पांच कार्षापण अंश (भाग) है इसका यह पञ्चक व्यापार । पञ्च=पांच कार्षापण वस्न (लागत मूल्य ) है इसका यह पञ्चक पट ( कपड़ा) । पञ्च = पांच कार्षापण भृति-वेतन है इसका यह-पञ्चक कर्मचारी । सप्त-सात कार्षापण अंश, वस्न वा भृति है इसकी यह-सप्तक। सहस्र- हजार कार्षापण अंश, वस्न वा भृति है इसकी यह साहस्र ।
उदा०- (१) पञ्चकः । पञ्चन्+जस्+कन् । पञ्च+क। पञ्चक+सु । पञ्चकः ।
यहां प्रथमा--समर्थ 'पञ्चन्' शब्द से अस्य अर्थ में तथा अंश आदि अभिधेय में 'संख्याया अतिशदन्ताया: कन्' (५1१1२२ ) से यथाविहित कन् प्रत्यय है । 'नलोपः
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