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पञ्चमाध्यायस्य प्रथमः पादः
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उदा०- (आढक) द्वि-आढक (पांच सेर) को जो धारण कर सकती है, उससे कम को धारण कर सकती है, उसे पकाती है वह - द्वयाढकिकी (ष्ठन्) । द्वयाढकीना (ख)। द्वयाढकी कढाही ( ढञ् - लुक्) । (आचित) द्वि-आचित (५० मण ) को जो धारण कर सकती है, उससे कम को धारण करती है, उसे पकाती है वह - द्वयाचितिकी (ष्ठन् ) । द्वयाचितीना ( ख ) । द्व्याचिता (ठञ् - लुक्) बहुत बड़ी कढाही । (पात्र) द्विपात्र = (५ सेर) को धारण कर सकती है, उससे कम को धारण कर सकती है, उसे पकाती है - द्विपात्रिकी (ष्ठन् ) । द्विपात्रीणा (ख)। द्विपात्रा ( ठञ् - लुक्) कढाही ।
वह-1
सिद्धि - (१) याढकिकी । द्वयाढक+अम्+ष्ठन् । द्वयाढक्+इक । द्वयाढकिक + ङीप् । द्वयाढकिकी+सु । द्वयाढकिकी ।
यहां द्वितीया-समर्थ, द्विगुसंज्ञक द्वयाढक' शब्द से सम्भवति-आदि अर्थों में इस सूत्र से 'ष्ठन्' प्रत्यय है। प्रत्यय के षित् होने से 'षिद्गौरादिभ्यश्च' (४/१/४१) से स्त्रीत्व-विवक्षा (कढाही ) में ङीष् प्रत्यय होता है। प्रत्यय के नित होने से 'नित्यादिर्नित्यम्' ( ६ 1१1१९७) से आद्युदात्त स्वर होता है-याढकिकी। ऐसे ही- द्व्याचितिकी, द्विपोत्रिकी । (२) द्वयाढकीना । द्वयाढक + अम् +ख । द्वयाढक् +ईन । छ्याढकीन+टाप् । द्वयाढकीना + सु । द्वयाढकीना ।
यहां द्वितीया-समर्थ, द्विगुसंज्ञक द्वयाढक' शब्द से सम्भवति - आदि अर्थों में इस सूत्र से 'ख' प्रत्यय है। स्त्रीत्व-विवक्षा में (कटाही) 'अजाद्यतष्टाप्' (४।१।४) से टाप् प्रत्यय होता है। ऐसे ही - द्वयाचितीना, द्विपात्रीणा ।
(३) द्व्याढकी । ट्र्याढक+अम्+ठञ् । द्वयाढक+०। द्वयाढक + ङीप् । द्वयाढकी+सु । द्वयाढकी।
यहां द्वितीया-समर्थ, द्विगुसंज्ञक 'द्वयाढक' शब्द से सम्भवति-आदि अर्थों में विकल्प पक्ष में 'प्राग्वतेष्ठञ्' (५1१1१८) से औत्सर्गिक 'ठञ्' प्रत्यय है। 'अध्यर्धपूर्वाद् द्विगोर्लुगसंज्ञायाम्' (५।१।२८) से उसका लुक् हो जाता है। स्त्रीत्व-विवक्षा (कटाही ) में 'द्विगो:' (४।१।२१) से ङीप् प्रत्यय होता है। ऐसे ही द्विपात्री ।
(४) द्व्याचिता । यहां द्वयाचित' शब्द से पूर्ववत् 'ठञ्' प्रत्यय का लुक् हो जाने पर 'अपरिमाणबिस्ताचितकम्बल्येभ्यो न तद्धितलुकि' (४|१| २२ ) से ङीप् प्रत्ययका प्रतिषेध हो जाता है । अत: 'अजाद्यतष्टाप्' ( ४ 1१1४ ) से स्त्रीत्व - विवक्षा में टाप्' प्रत्यय होता है।
लुक्, ठञ्, खः, ष्ठन्
(४) कुलिजाल्लुक्खौ च । ५४ । प०वि०-कुलिजात् ५ ।१ लुक्-खौ १।२ । स० - लुक् च खश्च तौ लुक्खौ ( इतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।
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