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पञ्चमाध्यायस्य प्रथमः पादः
निमित्तार्थप्रत्ययविधिः यथाविहितं प्रत्यय:
(१) तस्य निमित्तं संयोगोत्पातौ।३७। प०वि०-तस्य ६।१ निमित्तम् ११ संयोग-उत्पातौ १।२ । स०-संयोगश्च उत्पातश्च तौ-संयोगोत्पातौ (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । अन्वय:-तस्य प्रातिपदिकाद् निमित्तं यथाविहितं प्रत्यय: संयोगोत्पातौ।
अर्थ:-तस्य इति षष्ठीसमर्थात् प्रातिपदिकाद् निमित्तमित्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति, यन्निमित्तं संयोग उत्पातो वा स भवति ।
उदा०-(संयोग:) शतस्य निमित्तं धनपतिना संयोग:-शत्य: । शतिक: । साहस्र: । (उत्पात:) शतस्य निमित्तमुत्पात: शत्य: । शतिक: । साहस्रः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(तस्य) षष्ठी-समर्थ प्रातिपदिक से (निमित्तम्) निमित्त अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है (संयोगोत्पात्तौ) जो निमित्त-अर्थ है यदि वह संयोग वा उत्पात हो।
उदा०-(संयोग) शत-सौ कार्षापणों के निमित्त धनपति (सेठ) के साथ संयोग होना-शत्य अथवा शतिक। सहस्र-हजार कार्षापणों के निमित्त धनपति के साथ संयोग होना-साहस्र। (उत्पात:) शत-सौ कार्षापणों का निमित्त उत्पात यादृच्छिक (अनायास) प्राप्त होना-शत्य अथवा शतिक। सहस्र हजार कार्षापणों का निमित्त उत्पात यादृच्छिक (अनायास) प्राप्त होना-साहस्र ।
सिद्धि-(१) शत्य: । शत+डस्+यत् । शत्+य। शत्य+सु। शत्यः ।
यहां षष्ठी-समर्थ शत' शब्द से निमित्त (संयोग-उत्पात) अर्थ में इस सूत्र से यथाविहित प्रत्यय का विधान किया गया है अत: यहां 'शताच्च ठन्यतावशते' (५।१।२१) से यथाविहित यत्' प्रत्यय है।
(२) शतिक: । यहां 'शत' शब्द से पूर्ववत् ठन्' प्रत्यय है।
(३) साहस्रः। यहां 'सहस्र' शब्द से 'शतमानविंशतिकसहस्रवसनादण' (५।१।२७) से यथाविहित 'अण्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
विशेष: 'संयोगो नाम स भवति-इदं कृत्वेदमवाप्यत इति । उत्पातो नाम स भवति-यादृच्छिको भेदो वा छेदो वा पद्म वा पण वा' (महाभाष्य ५।१।३७)। 'जहां यह करके यह प्राप्त किया जाता है। उसे संयोग कहते हैं। यादृच्छिक (स्वाभाविक)भेदन, छेदन, कमल वा पत्ता आदि की प्राप्ति के समान जो यादृच्छिक शत आदि प्राप्ति का निमित्त होता है, उसे उत्पात कहते हैं।
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