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पञ्चमाध्यायस्य चतुर्थः पादः सिद्धि-(१) व्यूढोरस्क: । व्यूढ+सु+उरस्+सु । व्यूढ+उरस्+कम् । व्यूढोरस्+क। व्यूढोरस्क+सु। व्यूढोरस्कः।
यहां व्यूढ और उरस् शब्दों का पूर्ववत् बहुव्रीहि समास है। 'व्यूढोरस्' शब्द से इस सूत्र से समासान्त कप्' प्रत्यय है।
(२) प्रियसर्पिष्कः । यहां इण: ष:' (८।३।३९) से सर्पिः' के विसर्जनीय को षकार आदेश होता है।
(३) अवमुक्तोपानत्कः । यहां उपानह' शब्द के हकार को नहो ध:' (८।२।३४) से धकार, 'झलां जशोऽन्ते (८।२।३९) से धकार को जश् दकार और खरिच (८।४।५५) से दकार को चर् तकार आदेश होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
विशेष: उर:प्रभृति में पुमान्, अनड्वान्, पय:, नौः, लक्ष्मी: ये शब्द विभक्त्यन्त पठित हैं, प्रातिपदिक नहीं। इसका यह प्रयोजन है कि इनका एक वचनान्त में ही ग्रहण किया जाता है, द्विवचनान्त और बहुवचनान्त में नहीं। अत: इनसे शेषाद् विभाषा' (५।४।१५४) से विकल्प से समासान्त कप् प्रत्यय होता है जैसे-द्विपुंस्क:, द्विपुमान् । बहुपुमान्, बहुपुंस्क: इत्यादि। कप्
__(४०) इनः स्त्रियाम्।१५२॥ प०वि०-इन: ५।१ स्त्रियाम् ७।१। अनु०-समासान्ता:, बहुव्रीहौ, कप् इति चानुवर्तते। अन्वय:-बहुव्रीहौ स्त्रियाम् इन: समासान्त: कप् ।
अर्थ:-बहुव्रीहौ समासे स्त्रियां च विषये इन्नन्तात् प्रातिपदिकात् समासान्त: कप् प्रत्ययो भवति।
उदा०-बहवो दण्डिनो यस्यां सा-बहुदण्डिका शाला । बहुच्छत्रिका शाला। बहुस्वामिका नगरी। बहुवाग्मिका सभा।
आर्यभाषा: अर्थ-(बहुव्रीहौ) बहुव्रीहि समास में तथा (स्त्रियाम्) स्त्रीलिङ्ग विषय में (इन:) इन् जिसके अन्त में है उस प्रातिपदिक से (समासान्तः) समास का अवयव (क) कप् प्रत्यय होता है।
उदा०-बहु=बहुत हैं दण्डी जन जिसमें वह-बहुदण्डिका शाला। बहु=बहुत हैं छत्री छत्रधारी जन जिसमें वह-बहुच्छत्रिका शाला। बहु बहुत हैं स्वामी जिसमें वह-बहुस्वामिका नगरी। बहुत हैं वाग्मी श्रेष्ठ वक्ता जिसमें वह-बहुवागिमका सभा।
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