________________
४८४
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् झु-आदेश:
(१७) प्रसम्भ्यां जानुनोर्जुः ।१२६ । प०वि०-प्रसम्भ्याम् ५ ।२ जानुनो: ६।२ जु: १।१ ।
स०-प्रश्च सम् च तौ प्रसमौ, ताभ्याम्-प्रसम्भ्याम् (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)।
अनु०-समासान्ताः, बहुव्रीहौ इति चानुवर्तते। अन्वय:-बहुव्रीहौ प्रसम्भ्यां जानुनो: समासान्तो जुः ।
अर्थ:-बहुव्रीहौ समासे प्रसम्भ्यां परस्य जानु-शब्दस्य प्रातिपदिकस्य स्थाने समासान्तो जुरादेशो भवति ।
उदा०-(प्र:) प्रकृष्टे जानुनी यस्य स:-प्रजुः। (सम्) समीचीने जानुनी यस्य स:-संजुः।
आर्यभाषा: अर्थ-(बहुव्रीहौ) बहुव्रीहि समास में (प्रसम्भ्याम्) प्र और सम् शब्दों से परे (जानुनोः) जानु प्रातिपदिक से स्थान में (समासान्तः) समास का अवयव (शुः) जु आदेश होता है।
उदा०-(प्र) प्रकृष्ट उत्तम हैं जानु-घुटने जिसके वह-प्रजु । (सम्) समीचीन-अच्छे हैं जानु जिसके वह-संजु।
सिद्धि-प्रजुः । प्र+औ+जानु+औ। प्र+जानु । प्र+जु । प्रजु+सु। प्रजुः ।
यहां प्र और जानु शब्दों का पूर्ववत् बहुव्रीहि समास है। 'प्रजानु' शब्द के जानु' के स्थान में इस सूत्र से समासान्त जु' आदेश है।
विशेष: जानुनो:' पद में षष्ठी-द्विवचन का निर्देश सन्देह की निवृत्ति के लिये किया है कि 'जानु' के स्थान में 'जु' आदेश होता है। जानुन:' पाठ पञ्चमी और षष्ठी-विभक्ति का सन्देह हो सकता है और जु' आदेश नहीं यह प्रत्यय है, यह भी सन्देह हो सकता है। झु-आदेशविकल्प:
(१८) ऊर्ध्वाद् विभाषा।१३०। प०वि०-ऊर्ध्वात् ५।१ विभाषा १।१। अनु०-समासान्ता:, बहुव्रीहौ, जानुनोरिति चानुवर्तते। अन्वय:-बहुव्रीहौ ऊर्ध्वाज्जानुनोर्विभाषा समासान्तो जुः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org