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पञ्चमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
४५३ (२) महानसम् । यहां महत् और अनस् शब्दों का सन्महत्परमोत्तम०' (२।१।६१) से कर्मधारय तत्पुरुष समास है। 'आन्महत: समानाधिकरणजातीययोः' (६ ।३।४६) से आत्त्व होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(३) अमृताश्म । यहां अमृत और अश्मन् शब्दों का विशेषणं विशेष्येण बहुलम् (२।१।५७) से कर्मधारय तत्पुरुष समास है। 'अमृताश्मन्' शब्द से इस सूत्र से 'टच्' प्रत्यय करने पर नस्तद्धिते' (६।४।१४४) से अंग के टि-भाग (अन्) का लोप होता है। ऐसे ही-पिण्डाश्म, कालायसम्, लोहितायसम् ।
(४) मण्डूकसरसम् । यहां मण्डूक और सरस्' शब्दों का षष्ठी (२।२।८) से षष्ठीतत्पुरुष समास है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही-जलसरसम् ।
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(१०) ग्रामकौटाभ्यां च तक्ष्णः ।६५ । प०वि०-ग्राम-कौटाभ्याम् ५।२ च अव्ययपदम्, तक्ष्ण: ५।१।
स०-कुट्यां भव:-कौट: । ग्रामश्च कौटश्च तौ ग्रामकौटौ, ताभ्याम्ग्रामकौटाभ्याम् (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
अनु०-समासान्ताः, तत्पुरुषस्य, टच् इति चानुवर्तते। . अन्वय:-ग्रामकौटाभ्यां च तक्ष्णस्तत्पुरुषात् समासान्तष्टच् ।
अर्थ:-ग्रामकोटाभ्यां परस्मात् तक्षन्-शब्दान्तात् तत्पुरुषसंज्ञकात् प्रातिपदिकात् समासान्तष्टच् प्रत्ययो भवति ।
उदा०- (ग्राम:) ग्रामस्य तक्षा-ग्रामतक्ष: । बहूनां साधारण इत्यर्थः । (कौट:) कौटस्य तक्षा-कौटतक्ष: । स्वतन्त्र: कर्मजीवी, न कस्यचित् प्रतिबद्ध इत्यर्थः।
आर्यभाषा: अर्थ-(ग्रामकौटाभ्याम्) ग्राम और कौट शब्दों से परे (तक्ष्णः) तक्षन् शब्द जिसके अन्त में है उस (तत्पुरुषात्) तत्पुरुष संज्ञक प्रातिपदिक से (समासान्त:) समास का अवयव (टच्) टच् प्रत्यय होता है।
उदा०-(ग्राम) ग्राम का तक्षा बढ़ई-ग्रामतक्ष। बहुत जनों का सधारण बढ़ई। (कौट) कौट-अपनी कुटी में रहनेवाला-तक्षा-बढ़ई-कौटतक्ष । स्वतन्त्र बढ़ई।
विशेष: अपनी कुटी या घर की दुकान पर काम करनेवाला कौटतक्ष और भृति या मजदूरी पर गांव में जाकर काम करनेवाला ग्रामतक्ष कहलाता था। अपने ठीहे पर काम करनेवाले को लोग कुछ अधिक सम्मानित समझते हैं (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० २२४)।
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