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पञ्चमाध्यायस्य चतुर्थः पादः तदह:-सर्वाह्नः। (एकदेश:) पूर्वम् अह्न:-पूर्वाह्नः। अपराह्मणः । (संख्यातम्) संख्यातं च तदह:-संख्याताह्नः (पुण्यम्) पुण्यशब्दात् 'उत्तमैकाभ्यां च' (५।४।९०) इति प्रतिषेधं वक्ष्यति । तत्र उत्तमशब्द: पुण्यवचन:।
आर्यभाषा: अर्थ-(एतेभ्यः) इन संख्यादि और अव्ययादि तथा (सर्वैकदेशसंख्यातपुण्यात्) सर्व, एकदेश, संख्यात, पुण्य शब्दों से परे (तत्पुरुषस्य) तत्पुरुष संज्ञक (अतः) अहन् शब्द के स्थान में (समासान्त:) समास का अवयव (अनः) अह्न आदेश होता है।
उदा०- (संख्यादि) दो अहन्-दिनों में होनेवाला-द्वयन। तीन अहन्-दिनों में होनेवाला-त्र्यह्न। (अव्ययादि) अहन्-दिनों को अतिक्रान्त किया हुआ-अत्यत । अहन्-दिन में निकला हुआ-निरन। (सर्व) सर्व-सारा अहन्-दिन-सर्वाङ्ग। (एकदेश) अहन्-दिन का पूर्वभाग-पूर्वाह्न। अहन्-दिन का अपर (पश्चिम) भाग-अपराग। (संख्यात) संख्यात=गिना हुआ अहन्-दिन-संख्यातन। (पण्य) पुण्य शब्द से उत्तमैकाभ्यां च' (५ ।५ ।९०) से अल-आदेश का प्रतिषेध किया जायेगा। वहां उत्तम' शब्द पुण्यवाची है।
सिद्धि-(१) यह्नः। द्वि+ओस्+अहन्+ओस्+अण् । द्वि+अहन्+द्वि+अह्न। द्वयत सु। द्वयनः।
यहां द्वि और अहन् शब्दों का तद्धितार्थोत्तरसमाहारे च' (२।१।५१) से तद्धितार्थ विषय में द्विगुतत्पुरुष समास है, 'तत्र भव:' (४।३।५३) से तद्धित अण् प्रत्यय और द्विगोलुंगनपत्ये' (४।१।८८) से उसका लुक् होता है। इस सूत्र से 'अहन्' के स्थान में समासान्त 'अह्न आदेश होता है। ऐसे ही-त्र्यह्नः। .
(२) अत्यन: आदि की सिद्धि पूर्ववत् है, केवल अहन् के स्थान में अल-आदेश विशेष है। अनादेश-प्रतिषेधः
(४) न संख्यादेः समाहारे।८६। प०वि०-न अव्ययपदम्, संख्यादे: ६।१ समाहारे ७१। स०-संख्या आदिर्यस्य स संख्यादिः, तस्य-संख्यादे: (बहुव्रीहिः)। अनु०-समासान्ताः, तत्पुरुषस्य, अह्न:, अन इति चानुवर्तते। अन्वयः-समाहारे संख्यादेस्तत्पुरुषस्याह्नोऽह्नो न।
अर्थ:-समाहारेऽर्थे वर्तमानस्य संख्यादेस्तत्पुरुषसंज्ञकस्य अहन्-शब्दस्य स्थाने समासान्तोऽह्न आदेशो न भवति ।
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