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________________ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् से पर्जन्यवत् उत्तरपदवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे हीद्विकार्षापणिकम्। (३) अध्यर्धसहस्रम् । यहां अध्यर्धसहस्र' शब्द से शतमानविंशतिकसहस्रवसनादण् (५।१।२७) से 'अण्' प्रत्यय है और उसका इस सूत्र से लुक् होता है। ऐसे हीद्विसहस्रम्। (४) अध्यर्धसाहस्रम् । यहां 'अध्यर्धसहस्र' शब्द से पूर्ववत् ‘अण्' प्रत्यय है और उसका विकल्प पक्ष में लुक् नहीं होता है अत: पूर्ववत् उत्तरपद की वृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-द्विसाहस्रम् । विशेष: (१) कार्षापण-प्राचीन भारतवर्ष का सबसे मशहूर सिक्का चांदी का कार्षापण था। इसे ही मनुस्मृति में (८।१३५, १३६) में धरण और राजत पुराण (चांदी का पुराण) भी कहा गया है। पाणिनि ने इन सिक्कों को आहत (५ ।२।१२०) कहा है। ये सिक्के बुद्ध से भी पुराने हैं और भारतवर्ष में ओर से छोर तक पाये जाते हैं। अब तक लगभग पचास सहस्र से भी अधिक चांदी के कार्षापण मिल चुके हैं। मनुस्मृति के अनुसार चांदी के कार्षापण या पुराण का वजन ३२ रत्ती था (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० २५६)। (२) चांदी के कार्षापण का तोल-कार्षापण के विषय में शास्त्रीय तोल तो लिखित मिलता है किन्तु कार्षापण के उपलब्ध नमूने से भी तोल का ज्ञान होता है। मनुजी महाराज ने निम्नलिखित श्लोकों में स्पष्ट लिख दिया है पलं सुवर्णाश्चत्वारः पलानि धरणं दश । द्वे कृष्णले समधृते विज्ञेयो रौप्यमाषकः ।। ते षोडश स्याद् धरणं पुराणश्चैव राजतः। कार्षापणस्तु विज्ञेयस्ताम्रिक: कार्षिक: पणः।। धरणानि दश ज्ञेयः शतमानस्तु राजत:। चतुः सौवर्णिको निष्को विज्ञेयस्तु प्रमाणत: ।। अर्थ-चार सुवर्ण का एक पल, दश पल का एक धरण होता है। दो कृष्णल का एक राजत (चांदी का) माषा होता है। सोलह रौप्य माषों का एक धरण होता है (धरण को पुराण भी कहा जाता है। सोलह माषा ताम्बा को ताम्रिक तथा कार्षापणिक कहते हैं। दश धरण का एक राजत (चांदी का) शतमान होता है। चार सुवर्ण का एक निष्क होता है। कौटिल्य का धरण और मनु का धरण (कार्षापण) एक ही प्रतीत होते हैं। यही सिद्ध होता है कि ३२ रत्ती का धरण वा कार्षापण होता था (स्वामी ओमानन्द सरस्वती कृत-हरयाणा के प्राचीन लक्षण-स्थान पृ० १७)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003299
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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