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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
आर्यभाषाः अर्थ- (द्वितीयासप्तम्योः) द्वितीयान्त और सप्तम्यन्त (दिवमनुष्यपुरुषपुरुमर्त्येभ्यः) देव, मनुष्य, पुरुष, पुरु, मर्त्य प्रातिपदिकों से सामान्य अर्थ में (बहुलम् ) प्रायश: (त्राः) त्रा प्रत्यय होता है।
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उदा०- - (देव) देव = विद्वानों को प्राप्त करता है - देवत्रा प्राप्त करता है । देवों में रहता है- देवत्रा रहता है । (मनुष्य) मनुष्य = मननशील जनों को प्राप्त करता है-मनुष्यत्रा प्राप्त करता है। मनुष्यों में रहता है- मनुष्यत्रा रहता है। (पुरुष) पुरुषों को प्राप्त करता है - पुरुषत्रा प्राप्त करता है। पुरुषों में रहता है- पुरुषत्रा रहता है। (पुरु) पुरु- बहुत जनों को प्राप्त करता है - पुरुत्रा प्राप्त करता है। पुरु= बहुत जनों में रहता है- पुरुत्रा रहता है। ( मर्त्य) मर्त्य = मरणधर्मा जनों को प्राप्त करता है-मर्त्यत्रा प्राप्त करता है। मर्त्य = मरणधर्मा जनों में रहता है-मर्त्यत्रा रहता है। बहुलवचन से अन्यत्र भी त्रा प्रत्यय होता है- बहुत्रा जीवतो मनः ।
सिद्धि- देवत्रा । देव+शस्/सुप्+त्रा । देव+त्रा। देवत्रा + सु । देवत्रा+0 | देवत्रा | यहां द्वितीयान्त और सप्तम्यन्त देव' शब्द से सामान्य अर्थ में इस सूत्र से 'त्रा' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है । ऐसे ही - मनुष्यत्रा आदि ।
डाच्
(२) अव्यक्तानुकरणाद् द्वयजवरार्धादनितौ डाच् । ५७ । प०वि० - अव्यक्त - अनुकरणात् ५ ।१ द्वयजवरअर्धात् ५।१ अनितौ ७ । १ डाच् १ । १ ।
सo - यस्मिन् ध्वनौ अकारादयो वर्णा विशेषरूपेण न व्यज्यन्ते सोऽव्यक्त इति कथ्यते । अव्यक्तस्याऽनुकरणम्-अव्यक्तानुकरणम्, तस्मात्-अव्यक्तानुकरणात् ( षष्ठीतत्पुरुषः) । द्वावचौ यस्मिंस्तद् द्वयच् द्व्यच् अवरार्धं यस्य तत्-द्वयजवरार्धम्, तस्मात्-द्वयजवरार्धात् (बहुव्रीहि: ) । न इति : - अनिति:, तस्मिन् - अनितौ ( नञ्तत्पुरुषः ) ।
अनु०- कृभ्वस्तियोगे इत्यनुवर्तते ।
अन्वयः-कृभ्वस्तियोगे द्व्यजवरार्धाद् अव्यक्तानुकरणाड् डाच्,
अनितौ ।
अर्थः-कृभ्वस्तिभिर्योग द्व्यच् अवरार्धं यस्य तस्माद् अव्यक्तानुकरणवाचिनः प्रातिपदिकाड् डाच् प्रत्ययो भवति, अनिता परतः ।
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