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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषा: अर्थ-(विनयादिभ्य:) विनय आदि प्रातिपदिकों से स्वार्थ में (ठक्) ठक् प्रत्यय होता है।
उदा०-विनय ही-वैनयिक । समय ही-सामयिक, इत्यादि। सिद्धि-वैनयिकः । विनय+सु+ठक् । वैनय्+इक । वैनयिक+सु। वैनयिकः ।
यहां विनय' शब्द से इस सूत्र से स्वार्थ में ठक्' प्रत्यय है। 'किति च (७।२।११८) से अंग को आदिवृद्धि और यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-सामयिकः ।
ठक्
(२६) वाचो व्याहृतार्थायाम्।३५ । प०वि०-वाच: ५।१ व्याहृतार्थायाम् ७।१।
स०-व्याहृतः प्रकाशितोऽर्थो यस्या: सा-व्याहृतार्था, तस्याम्व्याहृतार्थायाम् (बहुव्रीहि:)।
अनु०-ठक् इत्यनुवर्तते। अन्वय:-व्याहृतार्थायां वाच: स्वार्थे ठक् ।
अर्थ:-व्याहृतार्थे प्रकाशितार्थे वर्तमानाद् वाक्-शब्दात् प्रातिपदिकात् स्वार्थे ठक् प्रत्ययो भवति । पूर्वमन्येनोक्तात्वात् सन्देशवाग् 'व्याहृतार्था' इति कथ्यते।
उदा०-वाचमेव-वाचिकं कथयति । वाचिकं श्रद्दधे ।
आर्यभाषाअर्थ-(व्याहृतार्थायाम्) व्याहृत पहले किसी अन्य के द्वारा कही हुई सन्देशात्मक वाणी अर्थ में विद्यमान (वाच:) वाक् शब्द से स्वार्थ में (ठक्) ठक् प्रत्यय होता है।
उदा०-वाक (व्याहृत) ही-वाचिक को कहता है। वाचिक पर श्रद्धा (विश्वास) करता है। पहले किसी अन्य के द्वारा कही हुई सन्देशात्मक वाणी को कहता है अथवा उस पर विश्वास करता है।
सिद्धि-वाचिकम् । वाच्+सु+ठक् । वाच्+इक। वाचिक+सु। वाचिकम् ।
यहां व्याहृत अर्थ में विद्यमान वाक्' शब्द से इस सूत्र से ठक्' प्रत्यय है। किति च' (७।२।११८) से अंग को पर्जन्यवत् आदिवृद्धि होती है।
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