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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् स्थानिवत् होकर उक्त पद्-आदेश करने में बाधक न हो। इस प्रकार पाद' को पद्-आदेश होकर स्त्रीत्व-विवक्षा में अजाद्यतष्टा (४।१।४) से टाप्' प्रत्यय और प्रत्ययस्थात०' (७।३।४४) से अकार को इकार आदेश होता है। स्वभावाच्च वुन्प्रत्ययान्तं स्त्रियामेव भवति वुन्-प्रत्ययान्त शब्द स्वभावत: स्त्रीलिङ्ग में ही होते हैं। ऐसे ही-द्विशतिका ।
दण्ड-व्यवसगार्थप्रत्ययविधिः वुन्
(१) दण्डव्यवसर्गयोश्च ।२। प०वि०-दण्ड-व्यवसर्गयो: ७।२ च अव्ययपदम्।
स०-दण्डश्च व्यवसर्गश्च तौ दण्डव्यवसौ, तयो:-दण्डव्यवसर्गयो: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
अनु०-पादशतस्य, संख्यादे:, वुन्, लोप:, च इति चानुवति।
अन्वयः-संख्यादे: पादशताद् वुन् लोपश्च, दण्डव्यवसर्गयोश्च । . अर्थ:-संख्यादे: पादान्तात् शतान्ताच्च प्रातिपदिकाद् वुन् प्रत्ययो भवति, अन्त्यस्य च लोपो भवति, दण्डव्यवसर्गयोश्च गम्यमानयोः । दण्ड: दमनम्। व्यवसर्ग: दानम् ।
उदा०-(पादान्त) द्वौ पादौ दण्डित:-द्विपदिकां दण्डित: (दण्ड:)। द्वौ पादौ व्यवसृजति-द्विपदिकां व्यवसर्जति (व्यवसर्ग:)। (शतान्तम्) द्वे शते दण्डित:-द्विशतिकां दण्डित: (दण्ड:)। द्वे शते व्यवसृजति-द्विशतिकां व्यवसृजति (व्यवसर्ग:)।
आर्यभाषा: अर्थ- (संख्यादेः) संख्या जिसके आदि में है उस (पादशतस्य) पादान्त और शतान्त प्रातिपदिक से (वुन्) वुन् प्रत्यय होता है (च) और (लोप:) अन्त्य अकार का लोप होता है (दण्डव्यवसर्गयो:) यदि वहां दण्ड-दमन और व्यवसर्ग-दान अर्थ की (च) भी प्रतीति हो।
उदा०-(पादान्त) दो पाद (कार्षापण का चतुर्थ-भाग) से दण्डित किया गया-द्विपदिका दण्डित (दण्ड)। दो पाद प्रदान करता है-द्विपदिका प्रदान करता है (व्यवसर्ग)। (शतान्त) दो शत-सौ कार्षापण से दण्डित किया गया-द्विशतिका दण्डित (दण्ड)। दो शत-सौ कार्षापण प्रदान करता है-द्विशतिका प्रदान करता है (व्यवसर्ग)।
सिद्धि-द्विपदिका और द्विशतिका पदों की सिद्धि पूर्ववत् है, यहां केवल दण्ड और त्यानपा अर्थ अभिधेय विशेष है।
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