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पञ्चमाध्यायस्य तृतीय पादः
૩૬૬ गोत्रापत्यम्-शामीवत: । शामीवत एव-शामीवत्य: शामीवत्यौ, शामीवता: । (ऊर्णावत्) ऊर्णावतो गोत्रापत्यम्-और्णावत: । और्णावत एव-और्णावत्य:, और्णावत्यौ, और्णावता:। (श्रुमत्) श्रुमतो गोत्रापत्यम्-श्रीमत् । श्रीमत् एव श्रीमत्यः । श्रीमत्यौ, श्रीमता: ।
आर्यभाषा: अर्थ-(अभिजित् श्रुमदण:) अभिजित्, विदभृत्, शालावत्, शिखावत्, शमीवत्, ऊर्णावत्, श्रुमत् इन अण्-प्रत्ययान्त प्रातिपदिकों से स्वार्थ में (यञ्) यञ् प्रत्यय होता है। यहां तस्यापत्यम्' (४।१।९२) से गोत्रापत्य अर्थ में विहित 'अण्' प्रत्यय का ग्रहण किया जाता है।
उदा०- (अभिजित्) अभिजित् का गोत्रापत्य-पौत्र-आभिजित। आभिजित ही-आभिजित्य । (विदभृत) विदभृत् का गोत्रापत्य-वैदभृत । वैदभृत ही-वैदभृत्य। (शालावत्) शालावत् का गोत्रापत्य-शालवत। शालवत ही-शालावत्य। (शिखावत्) शिखावत् का गोत्रापत्य-शैखावत। शैखावत ही-शैखावत्य। (शमीवत) शमीवत् का गोत्रापत्य-शामीवत । शामीवत ही-शामीवत्य। (ऊर्णावत्) ऊर्णावत् का गोत्रापत्य-और्णावत। और्णावत ही-और्णावत्यः । (श्रुमत्) श्रुमत् का गोत्रापत्य-श्रीमत। श्रीमत ही श्रीमत्य।
___ यहां बहुवचन में पूर्ववत् 'यञ्' का लुक् होता है। बहुत आभिजित ही-आभिजित। बहुत वैदभुत ही-वैदभूत । बहुत शालावत ही-शालावत। बहुत शैखावत ही-शैखावत । बहुत शामीवत ही-शामीवत । बहुत औवित ही-और्णावत। बहुत श्रीमत ही-श्रीमत।
सिद्धि-आभिजित्यः। अभिजित्+डस्+अण्। आभिजित्+अ। आभिजित ।। आभिजित्+सु+यञ् । आभिजित्+य। आभिजित्य+सु। आभिजित्यः ।
यहां प्रथम 'अभिजित्' शब्द से तस्यापत्यम्' (४।१।९२) गोत्रापतय अर्थ में 'अण्' प्रत्यय होता है। तद्धितेष्वचामादे:' (७।२।११७) से अंग को आदिवृद्धि होकर आभिजित' शब्द सिद्ध होता है। तत्पश्चात् अण्-प्रत्ययान्त 'आभिजित' शब्द से इस सूत्र से स्वार्थ में 'यञ्' प्रत्यय होता है। पूर्ववत् अंग को पर्जन्यवत् आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-वैदभृत्य: आदि।
तद्राजसज्ञा
(८) ज्यादयस्तद्राजाः ।११६ | प०वि०-ज्य-आदय: १।३ तद्राजा: १।३ ।
स०-ज्य आदिर्येषां ते-ज्यादय: (बहुव्रीहिः)। तेषां राजा-तद्राजः, ते तद्राजा: (षष्ठीतत्पुरुष:)।
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