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पञ्चमाध्यायस्य तृतीय पादः
३५३ के समान यह प्रतिकृति-शिव। विष्णु के समान यह प्रतिकृति-विष्णु। चित्रकर्म-अर्जुन के समान यह चित्र-अर्जुन। दुर्योधन के समान यह चित्र-दुर्योधन। ध्वज-कपि के समान यह ध्वज-कपि। गरुड के समान यह ध्वज-गरुड। सिंह के समान यह ध्वज-सिंह। कपि आदि की आकृति के ध्वज (झण्डे)।
सिद्धि-देवपथः । देवपथ+सु+कन् । देवपथ+0। देवपथ+सु। देवाथः ।
यहां इव-अर्थ तथा प्रतिकृति अर्थ में विद्यमान देवपथ' शब्द से विहित कन्' प्रत्यय का इस सूत्र से लुप् होता है। ऐसे ही-हंसपथ: आदि।
ढञ्
(६) वस्तेढ ।१०१। प०वि०-वस्ते: ५।१ ढञ् १।१ । अनु०-इवे इत्यनुवर्तते। अन्वय:-इवे वस्तेढञ्। अर्थ:-इवार्थे वर्तमानाद् वस्तिशब्दात् प्रातिपदिकाड्ढञ् प्रत्ययो भवति ।
इत: प्रभृति इवार्थे प्रतिकृतौ चाप्रतिकृतौ च सामान्येन प्रत्यया विधीयन्ते।
उदा०-वस्तिरिवायम्-वास्तेयः । स्त्री चेत्-वास्तेयी।
आर्यभाषा: अर्थ-(इवे) सदृश अर्थ में विद्यमान (वस्ते:) वस्ति प्रातिपदिक से (ढञ्) ढञ् प्रत्यय होता है।
उदा०-वस्ति-दृति (मशक) के समान आकृतिवाला पुरुष-वास्तेय। यदि स्त्री हो तो-वास्तेयी।
सिद्धि-वास्तेयः । वस्ति+सु+ढञ् । वास्त्+एय। वास्तेय+सु । वास्तेयः ।
यहां इव-अर्थ में विद्यमान वस्ति' शब्द से इस सूत्र से ढञ्' प्रत्यय है। आयनेय' (७।१।२) से 'द' के स्थान में एय्' आदेश होता है। तद्धितेष्वचामादे:' (७।२।११७) से अंग को आदिवृद्धि और 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के इकार का लोप होता है।
(७) शिलाया ढः।१०२। प०वि०-शिलाया: ५।१ ढ: १।१। अनु०-इवे इत्यनुवर्तते।
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