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पञ्चमाध्यायस्य तृतीय पादः
३१९
सिद्धि - एकाकी । एक+सु+आकिनिच् । एक्+आकिन् । एकाकिन्+सु । एकाकीन्+सु । एकाकीन +०। एकाकी० । एकाकी ।
यहां असहाय अर्थ में विद्यमान 'एक' शब्द से स्वार्थ में इस सूत्र से 'आकिनिच्' प्रत्यय है। 'यस्येति च' (६/४/१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। 'सौ च' ( ६ । ४ । १३) से नकारान्त अंग की उपधा को दीर्घ, हल्ड्याब्भ्यो दीर्घात्०' (६ /१/६७) से 'सु' का लोप और 'नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य' ( ८1२ 1७) से नकार का लोप होता है। (२) एकक: । यहां पूर्वोक्त 'एक' शब्द से इस सूत्र से 'कन्' प्रत्यय है । (३) एक: । यहां पूर्वोक्त 'एक' शब्द से इस सूत्र से आकिनिच् और कन् प्रत्यय कालु है ।
भूतपूर्वार्थप्रत्ययविधिः
(१) भूतपूर्वे चरट् । ५३ ।
चरट्
प०वि० - भूतपूर्वे ७।१ चरट् १ ।१ ।
सo - पूर्वं भूत इति भूतपूर्व : ( सुप् सुपा' इति केवलसमास: ) । भूतपूर्वशब्दोऽतीतकालवचनः ।
अन्वयः - भूतपूर्वे प्रातिपदिकाच्चरट् ।
अर्थ:- भूतपूर्वेऽर्थे वर्तमानात् प्रातिपदिकात् स्वार्थे चरट् प्रत्ययो भवति ।
उदा० - आढ्यो भूतपूर्वः - आढ्यवरः । स्त्री चेत्-आढ्यचरी । सुकुमारो भूतपूर्वः सुकुमारचरः । स्त्री चेत् - सुकुमारचरी ।
आर्यभाषाः अर्थ- (भूतपूर्वे) अतीत-काल अर्थ में विद्यमान प्रातिपदिक से स्वार्थ में (चर) चरट् प्रत्यय होता है ।
उदा०-आढ्य=धनवान् भूतपूर्व- आढयचर । यदि स्त्री है तो आढचचरी । सुकुमार = कोमलशील भूतपूर्व - सुकुमारचर । यदि स्त्री है तो - सुकुमारचरी ।
सिद्धि-अ
- आढ्यचरः । आठ्य+सु+चरट्। आढ्य+चर / आढयचर+सु । आव्यचरः । यहां भूतपूर्व अर्थ में विद्यमान 'आठ्य' शब्द से इस सूत्र से स्वार्थ में 'चरण' प्रत्यय है। प्रत्यय के टित्' होने से स्त्रीत्व-विवक्षा में 'टिड्ढाणञ' (४ ११।१५ ) से ङीप् ' प्रत्यय होता है- आदयचरी । ऐसे ही सुकुमारचरः, सुकुमारचरी ।
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