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पञ्चमाध्यायस्य द्वितीय पादः
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उदा० - व्रीहयोsस्य, अस्मिन् वा सन्ति - व्रीही (इनि: ) । व्रीहिक: (ठन् ) । व्रीहिमान् ( मतुप् ) । मायाऽस्य, अस्मिन् वाऽस्ति - मायी ( इनि: ) । मायिक: ( ठन्) । मायावान् ( मतुप् ) इत्यादिकम् ।
व्रीहि । माया । शिखा । मेखला । संज्ञा । बलाका । माला । वीणा । वडवा। अष्टका। पताका । कर्मन् । चर्मन् । हंसा । यवखद । कुमारी । नौ । शीर्षान्नञः । अशीर्षी । अशीर्षिका । इति व्रीह्यादयः । ।
अत्र - शिखाऽऽदिभ्य इनिरेवष्यते, न तु ठन्, यवखदादिभ्यश्च ठन्नेवेष्यते, शेषाच्चोभौ प्रत्ययावभीष्टौ ।
आर्यभाषाः अर्थ- (तत्) प्रथमा - समर्थ (ब्रीह्यादिभ्यः ) व्रीहि आदि प्रातिपदिकों से (च) भी (अस्य) षष्ठी विभक्ति और ( अस्मिन्निति ) सप्तमी विभक्ति के अर्थ में ( इनिठनौ) इनि, ठन् और (मतुप् ) मतुप् प्रत्यय होते हैं (अस्ति) जो प्रथमा-समर्थ है यदि वह 'अस्ति' हो ।
उदा०
- व्रीहि = चावल है इसका वा इसमें है यह व्रीही ( इनि) । व्रीहिक (ठन् )। व्रीहिमान् ( मतुप् ) । माया छल-कपट है इसका वा इसमें यह मायी (इनि) । मायिक (ठन्) । मायावान् ( मतुप् ) धोखेबाज, इत्यादि ।
सिद्धि - (१) व्रीही । व्रीही+सु+इनि । व्रीह्+इन् । व्रीहिन्+सु । ब्रहीन्+सु । व्रीहीन् +01
व्रीही।
यहां प्रथमा-समर्थ 'व्रीहि' शब्द से अस्य (षष्ठी) और अस्मिन् (सप्तसी) अर्थ में 'इनि' प्रत्यय है । 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के इकार का लोप होता है। शेष कार्य 'तपस्वी' (4 12 18०२ ) के समान है। ऐसे ही - मायी ।
(२) व्रीहिक: | यहां 'व्रीहि' शब्द से पूर्ववत् छन्' प्रत्यय है । 'ठस्येकः' (७/३/५०) से ठू' के स्थान में 'इक्' आदेश और पूर्ववत् अंग के इकार का लोप होता है। ऐसे ही मायिक: ।
(३) व्रीहिमान् पद की सिद्धि 'गोमान्' (५/२/९४) के समान है। ऐसे ही - मायावान् ।
विशेषः व्रीहि- आदिगण में पठित 'शिखा' शब्द से लेकर हंसा शब्द तक 'इनि' प्रत्यय अभीष्ट है । यवखद आदि शब्दों से ठन् (इकन्) प्रत्यय अभीष्ट है। शेष - व्रीहि, माया शब्दों से दोनों प्रत्यय होते हैं।
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