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________________ पञ्चमाध्यायस्य द्वितीय पाद: २३७ यहां ज्योतिष्' शब्द से अस्य (षष्ठी) और अस्मिन् (सप्तमी) अर्थ में इस सूत्र से न' प्रत्यय और अंग की उपधा (इ) का लोप निपातित है। स्त्रीत्व-विवक्षा में 'अजाद्यतष्टा (४।१।४) से 'टाप्' प्रत्यय और हल्ङ्याब्भ्यो दीर्घात०' (६।१।६७) से 'सु' का लोप होता है। (२) तमिस्रा। तमस्+सु+र। तमिस्+र। तमिस्र+टाप् । तमिस्रा+सु। तमिस्रा। यहां तमस्' शब्द से पूर्ववत् 'र' प्रत्यय और अंग की उपधा को इकार आदेश निपातित है। (३) शृङ्गिणः। यहां शृङ्ग' शब्द से पूर्ववत् इनच्’ प्रत्यय निपातित है। यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। (४) ऊर्जस्विन् । यहां ऊर्ज' शब्द से पूर्ववत् विनि' प्रत्यय और अंग को 'असुक' आगम निपातित है। (५) ऊर्जस्वलः। यहां ऊर्जु' शब्द से पूर्ववत् वलच्' प्रत्यय और अंग को 'असुक्’ आगम निपातित है। (६) गोमी। गो+सु+मिन् । गो+मिन् । गोमिन्+सु । गोमीन्+सु । गोमीन+०। गोमी। यहां 'गो' शब्द से पूर्ववत् 'मिन्' प्रत्यय निपातित है। शेष कार्य 'तपस्वी' (५।२।१०२) के समान है। (७) मलिन: । यहां मल' शब्द से पूर्ववत् इनच्' प्रत्यय निपातित है। 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। (८) मलीमस: । यहां मल' शब्द से पूर्ववत् 'ईमसच्' प्रत्यय निपातित है। पूर्ववत् अंग के अकार का लोप होता है। इनिः+ठन्+मतुप् (२२) अत इनिठनौ।११५। प०वि०-अत: ५।१ इनिठनौ १।२ । स०-इनिश्च हश्च तौ-इनिठनौ (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)। अनु०-तत्, अस्य, अस्ति, अस्मिन्, इति, अन्यतरस्याम् इति चानुवर्तते। अन्वय:-तद् अतोऽस्य, अस्मिन्निति चान्यतरस्याम् इनिठनौ। अर्थ:-तद् इति प्रथमासमर्थाद् अकारान्तात् प्रातिपदिकाद् अस्येति षष्ठ्यर्थे, अस्मिन्निति च सप्तम्यर्थे विकल्पेन इनिठनौ प्रत्ययौ भवतः, पक्षे च मतुप् प्रत्ययो भवति, यत् प्रथमासमर्थमस्ति चेत् तद् भवति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003299
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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