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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् __स०-भोग उत्तरपदं यस्य तत्-भोगोत्तरपदम्, आत्मा च विश्वजनश्च भोगोत्तरपदं च एतेषां समाहार: आत्मन्विश्वजनभोगोत्तरपदम्, तस्मात्आत्मन्विश्वजनभोगोत्तरपदात् (बहुव्रीहिगर्भितसमाहारद्वन्द्वः)।
अनु०-तस्मै, हितमिति चानुवर्तते। अन्वय:-तस्मै आत्मन्विश्वजनभोगोत्तरपदाद् हितं खः ।
अर्थ:-तस्मै इति चतुर्थीसमर्थाभ्याम् आत्मन्विश्वजनाभ्यां प्रातिपदिकाभ्यां भोगोत्तरपदाच्च प्रतिपदिकाद् हितमित्यस्मिन्नर्थे खः प्रत्ययो भवति।
उदा०-(आत्मा) आत्मने हितम्-आत्मनीनं शुभकर्म । (विश्वजन:) विश्वजनाय हितम्-विश्वजनीनं परोपकरणम् । (भोगोत्तरपदम्) मातुर्भोग इति मातृभोग:। मातृभोगाय हित:-मातृभोगीण: पुत्र: । पितुर्भोग इति पितृभोग: । पितृभोगाय हित:-पितृभोगीण: पुत्रः । भोग:=शरीरम्।
आर्यभाषा: अर्थ-(तस्मै) चतुर्थी-समर्थ (आत्मविश्वजनभोगोत्तरपदात्) आत्मन्, विश्वजन और भोग-उत्तरपदवाले प्रातिपदिक से (हितम्) हित अर्थ में (ख:) ख प्रत्यय होता है।
___ उदा०-(आत्मा) आत्मा के लिये हितकारी-आत्मनीन शुभकर्म। (विश्वजन) विश्वजन के लिये हितकारी-विश्वजनीन परोपकार। (भोगोत्तरपद) मातृभोग माता के शरीर के लिये हितकारी-मातृभोगीण पुत्र । माता की सेवा करनेवाला पुत्र । पितृभोग-पिता के शरीर के लिये हितकारी-पितृभोगीण पुत्र। पिता की सेवा करनेवाला पुत्र।
सिद्धि-(१) आत्मनीनम् । आत्मन्+डे+ख। आत्मन्+ईन। आत्मनीन+सु। आत्मनीनम्।
यहां चतुर्थी-समर्थ 'आत्मन्’ शब्द से हित अर्थ में इस सूत्र से 'ख' प्रत्यय है। 'आयनेय०' (७।१।२) 'ख' के स्थान में 'ईन्' आदेश होता है। यहां 'आत्माध्वानौ खे (६।४।१६९) से प्रकृतिभाव होता है अर्थात् 'नस्तद्धिते (६।४।१४४) से 'आत्मन्' के टि-भाग का लोप नहीं होता है। सूत्रपाठ में नकारान्त 'आत्मन्' शब्द का निर्देश उत्तरपद-सम्बन्ध की निवृत्ति के लिये है। अर्थात् 'आत्मन्’ इस प्रकृति से ही ख-प्रत्यय होता है।
(२) विश्वजनीनः । यहां विश्वजन' शब्द से पूर्ववत् 'ख' प्रत्यय है। विश्वे च ते जना इति विश्वजना: (कर्मधारयः)। यहां कर्मधारयवान् विश्वजन' शब्द से 'ख' प्रत्यय
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