________________
पञ्चमाध्यायस्य द्वितीय पादः
२०६ उदा०-श्राद्ध को इसने भुक्त सेवन कर लिया है यह-श्राद्धी (इनि)। श्राद्धिक
(ठन्)।
____ सिद्धि-(१) श्राद्धी। श्राद्ध+सु+इनि। श्राद्ध+इन् । श्राद्धिन्+सु। श्राद्धीन्+सु। श्राद्धीन्+० । श्राद्धी।
__ यहां प्रथमा-समर्थ, भुक्तवाची 'श्राद्ध' शब्द से अनेन (तृतीया) अर्थ में इस सूत्र से इनि' प्रत्यय है। सौ च' (६।४।१३) से नकारान्त अंग की उपधा को दीर्घ, हल्ड्याब्भ्यो० दीर्घात्' (६।१।६७) से 'सु' का लोप और नलोप: प्रातिपदिकान्तस्य' (८।२७) से नकार का लोप होता है।
(२) श्राद्धिकः। यहां 'श्राद्ध' शब्द से पूर्ववत् 'ठन्' प्रत्यय है। पूर्ववत् 'ह' के स्थान में 'इक' आदेश और अंग के अकार का लोप होता है।
विशेष: (१) पितृयज्ञ' अर्थात् जिसमें देव जो विद्वान्, ऋषि जो पढ़ने-पढ़ानेहारे, पितर माता-पिता आदि वृद्ध ज्ञानी और परमयोगियों की सेवा करनी। पितृयज्ञ के दो भेद हैं-एक श्राद्ध और दूसरा तर्पण। श्राद्ध अर्थात् 'श्रत्' सत्य का नाम है। 'श्रत सत्यं दधाति यया क्रियया सा श्रद्धा, श्रद्धया यत् क्रियते तच्छ्राद्धम् जिस क्रिया से सत्य का ग्रहण किया जाये उसको श्रद्धा और जो श्रद्धा से कर्म किया जाये उसका नाम श्राद्ध है (सत्यार्थप्रकाश समु० ३)।
(२) श्राद्ध अर्थात् श्रद्धापूर्वक किये गये यज्ञ आदि शुभकर्मों में जो देव, ऋषि, पितर और परमयोगी लोग भोजन करते हैं वे श्राद्धी अथवा श्राद्धिक कहाते हैं। इनि:
(२) पूर्वादिनिः।८६। प०वि०-पूर्वात् ५।१ इनि: १।१। अनु०-तत्, अनेन इति चानुवर्तते। अन्वय:-तत् पूर्वाद् अनेन इनिः ।
अर्थ:-तद् इति प्रथमासमर्थात् पूर्वशब्दात् प्रातिपदिकाद् अनेन इति तृतीयार्थे इनि: प्रत्ययो भवति।
उदा०-पूर्व भुक्तमनेन-पूर्वी । पूर्वं पीतमनेन-पूर्वी । । पूर्वी । पूर्विणौ । पूर्विणः।
___ आर्यभाषा: अर्थ-(तत्) प्रथमा-समर्थ (पूर्वात्) पूर्व प्रातिपदिक से (अनेन) तृतीया-विभक्ति के अर्थ में (इनि:) इनि प्रत्यय होता है।
उदा०-पूर्व=पहले खा लिया है इसने यह-पूर्वी। पूर्व पहले पी लिया है इसने यह पूर्वी । पूर्वी । पूर्विणौ। पूर्विणः।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org