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________________ १७२ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अर्थ:-तद् इति प्रथमासमर्थाद् अवयवेऽर्थे वर्तमानात् संख्यावाचिन: प्रातिपदिकाद् अस्येति षष्ठ्यर्थे तयप् प्रत्ययो भवति। उदा०-पञ्चावयवा अस्य-पञ्चतयम् । दशतयम्। चतुष्टयम् । चतुष्टयी। आर्यभाषा: अर्थ-(तत्) प्रथमा-समर्थ (अवयवे) अवयव अर्थ में विद्यमान (संख्यायाः) संख्यावाची प्रातिपदिक से (अस्य) षष्ठी-विभक्ति के अर्थ में (तयप्) तयप् प्रत्यय होता है। उदा०- पञ्च-पांच हैं अवयव इसके यह-पञ्चतय। दश-दस हैं अवयव इसके यह-दशतय। चतुर्=चार हैं अवयव इसके यह-चतुष्टय। स्त्रीलिंग में-चतुष्टयी। सिद्धि-(१) पञ्चतयम्। पञ्चन्+जस्+तयप्। पञ्च+तय। पञ्चतय+सु। पञ्चतयम्। ___ यहां प्रथमा-समर्थ, अवयवार्थक संख्यावाची ‘पञ्चन्' शब्द से अस्य (षष्ठी) अर्थ में इस सूत्र से तयप्' प्रत्यय है। स्वादिष्वसर्वनामस्थाने' १।४।१७) से 'पञ्चन्' शब्द की पदसंज्ञा होकर नलोप: प्रातिपदिकान्तस्य' (८।२७) से उसके नकार का लोप होता है। ऐसे ही-दशतयम् । (२) चतुष्टयम्। चतुर्+जस्+तयप्। चतुर्+तय। चतु:+तय। चतुस्+तय। चतुष्+टय। चतुष्टय+सु । चतुष्टयम्। ___ यहां प्रथमा-समर्थ, अवयवार्थक संख्यावाची 'चतुर्' शब्द से अस्य (षष्ठी) अर्थ में इस सूत्र से तयप्' प्रत्यय है। 'खरवसानयोर्विसर्जनीय:' (८।३।१५) से चतुर्' के रेफ को विसर्जनीय आदेश, विसर्जनीयस्य सः' (८।३।३४) से उस विसर्जनीय के स्थान में स्' आदेश और उसे 'हस्वात्तादौ तद्धिते (८।३।१०१) से मूर्धन्य तथा 'ष्टुना ष्टुः' (८।४।४१) से टुत्व होता है। स्त्रीत्व-विवक्षा में 'डिटढाणञ्' (४।१।१५) से डीप् प्रत्यय होता है-चतुष्टयी। अयच्-आदेशविकल्पः (८) द्वित्रिभ्यां तयस्यायज् वा।४३ । प०वि०-द्वि-त्रिभ्याम् ५ ।२ तयस्य ६१ अयच् १।१ वा अव्ययपदम् । स०-द्वौ च त्रयश्च ते द्वित्रयः, ताभ्याम्-द्वित्रिभ्याम् (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)। अनु०-तत्, अस्य, संख्याया:, अवयवे, तयप् इति चानुवर्तते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003299
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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