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पञ्चमाध्यायस्य द्वितीय पादः
१४७ सिद्धि-अद्यश्वीना । अद्यश्व+डि+ख । अद्यश्व्+ईन । अद्यश्वीन+टाप् । अद्यश्वीना+सु। अद्यश्वीना।
यहां सप्तमी-समर्थ 'अद्यश्वीना' शब्द विजायते-अर्थ में तथा अवष्टब्ध (सामीप्य) अर्थ में इस सूत्र से ख-प्रत्ययान्त निपातित है। पूर्ववत् 'ख' के स्थान में 'ईन्' आदेश, अंग के अकार का लोप और स्त्रीत्व-विवक्षा में 'अजाद्यतष्टाप्' (४।१।४) से टाप् प्रत्यय होता है।
विशेष: अवष्टब्ध:-अव उपसर्ग पूर्वक स्तम्भ' धातु के सकार को अविदूर (निकट) अर्थ में 'अवाच्चालम्बनाविदूर्ययोः' (८।१।४) से णत्व होता है। अवष्टब्ध अविदूर निकट (समीप)। खः (निपातनम्)
(३) आगवीनः ।१४। प०वि०-आगवीन: १।१।
अर्थ:-आगवीन इति पदं निपात्यते। अत्र आङ्पूर्वाद् गोशब्दात् आ तस्य गो: प्रतिदानात् कारिणि अर्थे ख: प्रत्ययो भवति ।
उदा०-आगवीन: कर्मकर: । यो गवा भृत: कर्म करोति, आ तस्य गो: प्रत्यर्पणात्, स आगवीन इत्युच्यते।
आर्यभाषा: अर्थ-(आगवीन:) आगवीन यह पद निपातित है। यहां उपसर्ग गो' शब्द से उसे गौ वापिस लौटाने तक, कारी कार्य करनेवाला अर्थ में 'ख' प्रत्यय निपातित है।
उदा०-आगवीन कर्मकर (नौकर)। जो गो-प्रदान से खरीदा हुआ पुरुष, गोस्वामी के द्वारा उसे गौ के लौटाने तक कार्य करता है, वह सेवक आगवीन' कहाता है।
सिद्धि-आगवीन: । आङ्+गो+सु+ख। आ+गव्+ईन। आगवीन+सु। आगवीनः ।
यहां आङ् उपसर्ग पूर्वक प्रतिदानवाची गो' शब्द से कारी अर्थ में इस सूत्र से 'ख' प्रत्यय निपातित है। पूर्ववत् 'ख' के स्थान में 'ईन्' आदेश तथा 'एचोऽयवायाव:' (२।१।७८) से 'अव्' आदेश होता है।
विशेष: आगवीन कर्मकर वह मजदूर था जो गाय मिल जाने तक काम करे। इसका ब्यौंत यूं बैठता है-माँ का दुध छोड़ देने पर बछिया किसी कमेरे को चराई पर दे दी जाती है। यदि वह अपने घर पर चरावे तब गाय के बिआने पर उसका मूल्य कूत कर आधा-आधा कर दिया जाता है। दोनों में कोई आधा मूल्य देकर गाय ले लेता है। इसे अधवट चराई कहते हैं। दूसरा तरीका यह है कि चरानेवाला मालिक के यहां ही काम करता रहता है। जब गाय बिआ जाती है तो उसकी भूति के बदले में वह गाय उसी को दे दी जाती है। यही 'आगवीन' कहलाता था (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० २१६) ।
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