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पञ्चमाध्यायस्य द्वितीय पादः
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विशेषः (१) लोक में जूता बनवाने के दो प्रकार हैं, एक तो मोची को बुलवा कर, पैर की नाप देकर और दूसरे हाट में जाकर, जो अपने पैर की माप का हो, पहन लेते हैं। पहले प्रकार की पनही के लिये लोक में 'अनुपदीना' शब्द चलता था, जिसका पाणिनि ने उल्लेख किया है (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० २२७ ) ।
(२) (चौपड़ के शारों की दाहिनी ओर की चाल 'अय' है और बाईं ओर की 'अनय' (आमने-सामने बैठे हुये खिलाड़ियों की दृष्टि से गोटें दाहिनी - बाईं ओर से चलती हुई आती हैं)। वह घर 'अयानय' है जिसमें दाहिनें-बायें दोनों ओर से आती हुई गोटें (अर्थात् दोनों खिलाड़ियों की गोटें) एक-दूसरे से या अपनी शत्रु-गोटों से पिट न सकें । ऐसी गोट जिसे ऐसे घर में ले जाना या पुगाना हो वह 'अयानयीन' कही जाती है। चौपड़ के फलक पर बीच का कोठा वह स्थान है जहां पहुंचकर गोटें फिर मरती नहीं। हमारी दृष्टि में यही 'अयानयीन' पद होना चाहिये (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० १६९) ।
अनुभवति-अर्थप्रत्ययविधिः
ख:
(१) परोवरपरम्परपुत्रपौत्रमनुभवति ॥ १० ॥ प०वि०-परोवर-परम्पर- पुत्रपौत्रम् २ ।१ अनुभवति क्रियापदम् । स०-परोवरश्च परम्पराश्च पुत्रपौत्राश्च एतेषां समाहारः परोवरपरम्परपुत्रपौत्रम्, तत्-परोवरपरम्परपुत्रपौत्रम् (समाहारद्वन्द्वः ) ।
अनु० - तत् ख इति चानुवर्तते ।
अन्वयः-तत् परोवरपरम्परपुत्रपौत्रेभ्योऽनुभवति खः । अर्थ:- तद् इति द्वितीयासमर्थेभ्यः परोवरपरम्परपुत्रपौत्रेभ्यः प्रातिपदिकेभ्योऽनुभवतोत्यस्मिन्नर्थे खः प्रत्ययो भवति ।
उदा०- ( परोवरा ) पराँश्च अवराँश्च अनुभवति-परोवरीणः । परावरशब्दस्य परोवरभावो निपात्यते । (परम्पराः) पराँश्च परतराँश्च अनुभवति - परम्परीणः । परम्परतरशब्दस्य परम्परभावो निपात्यते । (पुत्रपौत्रा :) पुत्रपौत्रान् अनुभवति-पुत्रपौत्रीणः ।
आर्यभाषाः अर्थ- (तत्) द्वितीया - समर्थ (परोवरपरम्परपुत्रपौत्रम्) परोवर, परम्पर, पुत्रपौत्र प्रातिपदिकों से ( अनुभवति) अनुभव करता है, अर्थ में (ख) ख प्रत्यय होता है।
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