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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषा: अर्थ-(तस्य) षष्ठी-समर्थ (होत्राभ्य:) होत्रावाची-ऋत्विग् विशेषवाची प्रातिपदिकों से (भावः) भाव (च) और (कर्माण) कर्म अर्थ में (छ:) छ प्रत्यय होता है, त्व और तल् प्रत्यय होते ही है।
उदा०-अच्छावाक नामक ऋत्विक का भाव वा कर्म-अच्छावाकीय, अच्छावाकत्व अच्छावाकता। मित्रावरुण नामक ऋत्विक् का भाव वा कर्म-मित्रावरुणीय, मित्रावरुणत्व, मित्रावरुणता । ब्राह्मणाच्छंसी नामक ऋत्विक् का भाव वा कर्म-ब्राह्मच्छंसीय, ब्राह्मणाच्छसित्व, ब्राह्मणाच्छंसिता। आपीध्र नामक ऋत्विक का भाव वा कर्म-आग्नीधीय, आग्नीध्रत्व, आग्नीध्रता। प्रतिप्रस्थाता नामक ऋत्विक् का भाव वा कर्म-प्रतिप्रस्थात्रीय, प्रतिप्रस्थातृत्व, प्रतिप्रस्थातृता। नेष्टा नामक ऋत्विक् का भाव वा कर्म-नेष्ट्रीय, नेष्ट्रत्व, नेष्ट्रता। पोता नामक ऋत्विक् का भाव वा कर्म-पोत्रीय, पोतृत्व, पोतृता। ___सिद्धि-अच्छावाकीयम् । अच्छवाक+डस्+छ। अच्छावाक् ईय। अच्छावाकीय+सु। अच्छावाकीयम्।
यहां षष्ठी-समर्थ, ऋत्विग्विशेषवाची अच्छावाक' शब्द से भाव और कर्म अर्थ में इस सूत्र से छ' प्रत्यय है। 'आयनेयः' (७।१।२) से 'छ्' के स्थान में ईय्’ आदेश और यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-मित्रावरुणीयम्
आदि।
विशेष: यज्ञ में १६ सोलह ऋत्विजों का काम एक-दूसरे के साथ सहयोग पर आश्रित था। उनमें से हर एक कर्म और भाव को प्रकट करने के लिये भाषा में अलग-अलग शब्द थे। ये शब्द ऋत्विजों के नामों में प्रत्यय जोड़कर बनाये जाते थे। होत्राभ्यश्छ:' (५१११३४) सूत्र में इसका विधान किया गया है। १६ सोलह ऋत्विजों के वेदानुसारी नाम निम्नलिखित हैं
(१) ऋग्वेद- होता, मित्रावरुण, अच्छावाक, ग्रावस्तुत् । (२) यजुर्वेद- अध्वर्यु, प्रतिप्रस्थाता, नेष्टा, उन्नेता। (३) सामवेद- उद्गाता, प्रस्तोता, प्रतिहर्ता, सुब्रह्मण्य। (४) अथर्ववद- ब्रह्मा, ब्राह्मणाच्छंसी, आग्नीध, पोता।
(पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० ३६६-६७) त्व:
(१२) ब्रह्मणस्त्वः ।१३५ । प०वि०-ब्रह्मण: ५।१ त्व: १।१ । अनु०-तस्य, भाव:, कर्मणि, च, होत्राभ्य इति चानुवर्तते। अन्वय:-तस्य होत्राया ब्रह्मणो भावे कर्मणि च त्वः ।
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