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यत् ।
चतुर्थाध्यायस्य चतुर्थः पादः
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अन्वयः-छन्दसि यथायोगं विभक्तिसमर्थाद् वसोः समूहे मये च
अर्थः-छन्दसि विषये यथायोगं विभक्तिसमर्थाद् वसु-शब्दात् प्रातिपदिकात् समूहे मयट् - अर्थे च यथाविहितं यत् प्रत्ययो भवति । उदा०- (समूहः ) वसूनां समूहः- वसव्य: । (मयडर्थः ) वसुभ्यः
आगत: - वसव्यः ।
आर्यभाषाः अर्थ - (छन्दसि ) वेदविषय में, यथायोग विभक्ति - समर्थ ( वसोः) वसु प्रातिपदिकसे (समूह) समूह (च) और (मये) मयट् प्रत्यय के अर्थ में (यत्) यथाविहित यत् प्रत्यय होता है।
उदा०- (समूहः) वसु = देवता / धनों का समूह - वसव्य। ( मयट् - अर्थ ) वसु-देवता / धन से आगत ( प्राप्त) - वसव्य ।
सिद्धि-वसव्यः । वसु + आम्+यत्। वसो+य। वसव्य+सु। वसव्यः ।
यहां षष्ठी- समर्थ 'वसु' शब्द से समूह अर्थ में इस सूत्र से यथाविहित प्राग्-हितीय यत् प्रत्यय है। ‘ओर्गुण:' (६।४।१४६) से अंग को गुण और 'वान्तो य प्रत्यये (६ 1१1७८) से वान्त (अव्) आदेश होता है।
'वसु' शब्द देवतावाचक और धनवाचक है । देवतावाची 'वसु' शब्द से समूह अर्थ 'तस्य समूह:' ( ४ /२/३७ ) से प्राग्दीव्यतीय 'अण्' प्रत्यय प्राप्त है और धनवाची 'वसु' शब्द से 'अचित्तहस्तिधेनोष्ठक्' (४/२/४७ ) से 'ठक्' प्रत्यय प्राप्त है किन्तु यहां छन्दोभाषा में 'यत्' प्रत्यय का विधान किया गया है।
'वसु' शब्द से हेतुमनुष्येभ्योऽन्यतरस्यां रूप्यः' (४/३/८१) से रूप्यं और 'मयट् च' (४ । ३ । ८२ ) से मयट् प्रत्यय प्राप्त है किन्तु यहां छन्दोभाषा में यत् प्रत्यय का विधान किया गया है।
विशेषः 'वसु' शब्द यास्कीय निघण्टु (वैदिक - कोष) में रात्रि - नाम (१1७) तथा धन-नामों ( २ 120 ) में पठित है ।
स्वार्थप्रत्ययविधिः
घः
(१) नक्षत्राद् घः । १४१ ।
प०वि०-नक्षत्रात् ५।१ घः १ ।१ । अनु०-छन्दसि इत्यनुवर्तते । 'समूहे' इति च नानुवर्तते ।
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