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चतुर्थाध्यायस्य चतुर्थः पादः
५४१ उदा०-(पन्था) पन्था मार्ग में जो साधु योग्य है वह-पाथेय (चूर्मा आदि)। (अतिथि) अतिथि-सत्कार में जो साधु योग्य है वह-आतिथेय (दुग्धपान आदि)। (वसति) वसति=निवास (घर) में जो साधु योग्य है वह-वासतेय (घर का सामान)। (स्वपति) स्वपति (सोना) में जो साधु योग्य है वह-स्वापतेय (खाट-बिस्तरा आदि)।
सिद्धि-पाथेयम् । पथिन्+डि+ढञ् । पाथ्+एय। पाथेय+सु। पाथेयम्।
यहां सप्तमी-समर्थ 'पथिन्' शब्द से साधु अर्थ में इस सूत्र से ढञ्' प्रत्यय है। 'आयनेय०' (७।१।२) से 'य' के स्थान में एय्' आदेश और 'नस्तद्धिते (६।४।१४४) से 'पथिन्’ के टि-भाग (इन्) का लोप होता है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि होती है। ऐसे ही-आतिथ्यम् आदि। यः
(C) सभाया यः।१०५ । प०वि०-सभाया: ५।१ य: १।१। अनु०-तत्र, साधुरिति चानुवर्तते । अन्वय:-तत्र सभाया: साधुर्यः ।
अर्थ:-तत्र इति सप्तमीसमर्थात् सभा-शब्दात् प्रातिपदिकात् साधुरित्यस्मिन्नर्थे य: प्रत्ययो भवति ।
उदा०-सभायां साधु:-सभ्यः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(तत्र) सप्तमी-समर्थ (सभायाः) सभा प्रातिपदिक से (साधुः) निपुण/योग्य अर्थ में (य:) य प्रत्यय होता है।
उदा०-सभा (समुदाय) में जो साधु-निपुण/योग्य है वह-सभ्य। सिद्धि-सभ्यः । सभा+डि+य। सभ्य। सभ्य+सु । सभ्यः ।
यहां सप्तमी-समर्थ 'सभा' शब्द से साधु अर्थ में इस सूत्र से 'य' प्रत्यय है। यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के आकार का लोप होता है। 'य' और 'यत्' प्रत्यय में यह भेद है कि 'य' प्रत्यय 'आधुदात्तश्च' (३।१।३) से आधुदात्त और 'यत्' प्रत्यय तित् स्वरितम्' (६।१।१८२) से स्वरित होता है। ढः (छान्दसः)
(६) ढश्छन्दसि।१०६ । प०वि०-ढ: १।१ छन्दसि ७।१। अनु०-तत्र, साधुः, सभाया इति चानुवर्तते ।
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