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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् विशेष: यहां करण, जल्प, कर्ष ये कृदन्त पद हैं। 'कर्तकर्मणोः कृति (२।३।६५) से इनके योग में षष्ठी-विभक्ति होती है। अत: प्रत्ययार्थ के सामर्थ्य से यहां षष्ठी-विभक्ति का ग्रहण किया जाता है। 'मतस्य करणम्' और 'हलस्य कर्षः' यहां कर्म में षष्ठी-विभक्ति है। 'जनस्य जल्प:' यहां कर्ता में षष्ठी-विभक्ति है।
साध-अर्थप्रत्ययप्रकरणम् यथाविहितम् (यत्)
(१) तत्र साधुः ।६८/ प०वि०-तत्र अव्ययपदम्, साधु: ११ । अनु०-यत् इत्यनुवर्तते। अन्वय:-तत्र प्रातिपदिकात् साधुर्यत् ।
अर्थ:-तत्र इति सप्तमीसमर्थात् प्रातिपदिकात् साधुरित्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं यत् प्रत्ययो भवति । साधु: प्रवीणो योग्यो वेत्यर्थः ।
उदा०-सामसु साधु:-सामन्यः। वेमनि साधु:-वेमन्यः। कर्मणि साधु:-कर्मण्य: । शरणे साधु:-शरण्यः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(तत्र) सप्तमी-समर्थ प्रातिपदिक से (साधुः) निपुण/योग्य अर्थ में (यत्) यथाविहित यत् प्रत्यय होता है।
उदा०-सामगान में जो साधु योग्य है वह-सामन्य। वेम (करघा) चलाने में जो निपुण है वह-वेमन्य। कर्म (कार्य) करने में जो साधु-निपुण है वह-कर्मण्य । शरण प्रदान करने में जो साधु योग्य वह-शरण्य (ईश्वर)।
सिद्धि-सामन्य: । सामन्+डि+यत् । सामन्+य। सामन्य+सु । सामन्यः ।
यहां सप्तमी-समर्थ 'सामन्’ शब्द से साधु-अर्थ में इस सूत्र से यथाविहित प्राग्-हितीय 'यत्' प्रत्यय है। ये चाभावकर्मणोः' (६।४।१६८) से प्रकृतिभाव होता है। ऐसे ही-वेमन्यः, कर्मण्य:, शरण्यः। खञ्
(२) प्रतिजनादिभ्यः खञ्।६६ । प०वि०-प्रतिजन-आदिभ्य: ५।३ खञ् ११।
स०-प्रतिजन आदिर्येषां ते प्रतिजनादय:, तेभ्य:-प्रतिजनादिभ्यः (बहुव्रीहि:)।
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