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चतुर्थाध्यायस्य चतुर्थः पादः
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उदा०
- धेनुष्या गौ । जो गाय उत्तमर्ण ( साहूकार ) को ऋण चुकाने के लिये दी - धेनुष्या कहाती है। यह पीतदुग्धा (बाखड़ी) गाय 'धेनुष्या' संज्ञा से प्रसिद्ध है । सिद्धि - धेनुष्या । धेनु+सु+य। धेनु+षुक्+य। धेनु+ष्+य। धेनुष्य+टाप् । धेनुष्या+सु ।
धेनुष्या ।
जाती है वह
यहां प्रथमा-समर्थ 'धेनु' शब्द से संज्ञा अर्थ में इस सूत्र से 'य' प्रत्यय निपातित है, और क् आगम भी होता है । 'यत्' प्रत्यय के प्रकरण में य' प्रत्यय का निपातन इसलिये किया गया है कि 'तित् स्वस्तिम्' ( ६ । १ । १८२ ) से यहां स्वरित स्वर न हो। यहां अन्तोदान्त स्वर अभीष्ट है अतः 'य' प्रत्यय निपातित किया गया है- धेनुष्या । यदि प्रकरणवश 'यत्' प्रत्यय ही माना जाये तो निपातन से अन्तोदात्त स्वर मानना चाहिये ।
संयुक्तार्थप्रत्ययविधिः
ञ्यः
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(१) गृहपतिना संयुक्ते यः । ६० ।
प०वि० - गृहपतिना ३ । १ संयुक्ते ७ । १ ञ्यः १ । १ ।
अनु०-संज्ञायाम् इत्यनुवर्तते । अत्र 'गृहपतिना' इति तृतीयाविभक्तिनिर्देशात् तृतीयासमर्थविभक्तिर्गृह्यते ।
अन्वयः - तृतीयासमर्थाद् गृहपतेः संयुक्ते यः संज्ञायाम् ।
"
अर्थ:- तृतीयासमर्थाद् गृहपतिशब्दात् प्रातिपदिकात् संयुक्त इत्यस्मिन्नर्थे
ञ्यः प्रत्ययो भवति, संज्ञायां गम्यमानायाम्।
उदा०-गृहपतिना संयुक्तः - गार्हपत्योऽग्निः ।
आर्यभाषाः अर्थ-तृतीया-समर्थ (गृहपतिना) गृहपति प्रातिपदिक से (संयुक्ते) सम्बद्ध अर्थ में (ञ्यः) ञ्य प्रत्यय होता है (संज्ञायाम्) यदि वहां संज्ञा अर्थ की प्रतीति हो । उदा०- -गृहपति से संयुक्त- गार्हपत्य अग्नि ।
सिद्धि-गार्हपत्यः । गृहपति+ट्रा+व्यः । गार्हपत्+य । गर्हपत्य+सु। गार्हपत्यः ।
यहं तृतीया-समर्थ 'गृहपति' शब्द से संयुक्त अर्थ में तथा संज्ञा अर्थ की प्रतीति में इस सूत्र से 'त्र्य' प्रत्यय है । पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है।
विशेष: श्रौत - यज्ञ की अग्नि, मन्थन से उत्पन्न की जाती है। उसे गृहपति (यजमान) गार्हपत्य नामक वेदी में 'गार्हपत्याग्नि' के रूप में सदा सुरक्षित रखता है। वहां
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