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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अर्थ:-प्रथमासमर्थाद् मूल-शब्दात् प्रातिपदिकाद् अस्येति षष्ठ्यर्थे यथाविहितं यत् प्रत्ययो भवति, यत् प्रथमासमर्थम् आवर्हि (उत्पाटि) चेत् तद् भवति।
उदा०-मूलमेषामावर्हि (उत्पाटि) ते-मूल्या माषा: । मूल्या मुद्गाः ।
आर्यभाषा: अर्थ-प्रथमा-समर्थ (मूलम्) मूल प्रातिपदिक से (अस्य) षष्ठी-विभक्ति के अर्थ में (यत्) यत् प्रत्यय होता है (आवर्हि) जो प्रथमा-समर्थ यदि वह आवहीं (उत्पाटी) हो।
उदा०-मूल इनका आवर्दी फाड़ने योग्य है वे मूल्य माष (उड़द)। मूल्य मुद्ग (मूंग)।
बहुत पके हुये उड़द और मूंग आदि 'मूल्य' कहाते हैं क्योंकि इनके मूल (जड़) को उखाड़े बिना उन्हें ग्रहण नहीं किया जा सकता। काटने से इनकी फलियों की भूमि पर गिरने की सम्भावना होती है। ___ सिद्धि-मूल्य: । मूल+सु+यत् । मूल्+य । मूल्य+सु । मूल्यः ।
यहां प्रथमा-समर्थ 'मूल' शब्द से अस्य अर्थ में तथा आवहीं अभिधेय में इस सूत्र से यथाविहित प्राग-हितीय यत्' प्रत्यय है। 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है।
विशेष: आवहीं-यहां आङ् उपसर्ग पूर्वक वह उद्यमने (तु०प०) धातु से 'भावे' (३।३।१८) से भाव अर्थ में घञ् प्रत्यय है। आ+वृह+घञ् । आ+वह+अ। आवह+सु । आवर्हः (उखाड़ना)। आवर्होऽस्यास्तीति-आवर्ती। यहां 'अत इनिठनौ' (५।२।११५) से 'अस्यास्ति' अर्थ में 'इनि' प्रत्यय है-आवीं । यह सूत्रपाठ में 'मूलम्' (नपुंसकलिङ्ग) का विशेष होने से ह्रस्वो नपुंसके प्रातिपदिकस्य' (१।२।४७) से इसे ह्रस्व हो जाता है-आवहि। यप्रत्ययान्तं निपातनम्
(१) संज्ञायां धेनुष्या।८६। प०वि०-संज्ञायाम् ७१ धेनुष्या १।१। अर्थ:-धेनुष्या इति य-प्रत्ययान्तं निपात्यते, संज्ञायां विषये। उदा०-धेनुष्या गौः । धेनुष्यां भवते ददामि।
आर्यभाषाअर्थ-(धनुष्या) धेनुष्या शब्द य-प्रत्ययान्त निपातित है (संज्ञायाम्) संज्ञा विषय में।
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