SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 547
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५१० पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अनु०-ठक् इत्यनुवर्तते । तद् अस्मै इति चाग्रिमसूत्रादनुकृष्यते। अन्वय:-तत् प्रातिपदिकाद् हितम् अस्मै ठक, भक्षाः । अर्थ:-तद् इति प्रथमासमर्थात् प्रातिपदिकाद् अस्मै इति चतुर्थ्यर्थे यथाविहितं ठक् प्रत्ययो भवति, यत् प्रथमासमर्थं हितं चेत्, यच्च हितं भक्षाश्चेत् तद् भवति। उदा०-अपूपभक्षणं हितमस्मै-आपूपिक: । शाष्कुलिकिक: । मौदकिकः । हितार्थो भक्षणक्रिया च तद्धितवृत्तावन्तर्भवति । आर्यभाषा: अर्थ- (तत्) प्रथमा-समर्थ प्रातिपदिक से (अस्मै) इसके लिये अर्थ में (ठक्) यथाविहित ठक् प्रत्यय होता है (हितम्) जो प्रथमा-समर्थ है वह हित=हितकारी हो (भक्षाः) और जो हितकारी है भक्ष=खाना हो। उदा०-अपूपभक्षण (पड़े खाना) इसके लिये हितकारी है यह-आपूपिक । शकुलिभक्षण (पूरी खाना) इसके लिये हितकारी है यह-शाष्कुलिक । मोदकभक्षण (लड्डू खाना) इसके लिये हितकारी है यह-मौदकिक: । हित-अर्थ और भक्षणक्रिया का तद्धितवृत्ति में अन्तर्भाव हो जाता है। सिद्धि-आपूपिक: । अपूप+सु+ठक् । आपूप्+इक । आपूपिक+सु । आपूपिकः । यहां प्रथमा-समर्थ, 'अपूप' शब्द से अस्मै अर्थ में तथा हित (भक्षण) अभिधेय में इस सूत्र से यथाविहित प्राग्दीव्यतीय ठक्' प्रत्यय है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-शाष्कुलिकः, मौदकिकः। विशेष: (१) यहां काशिकाकार पं० जयादित्य ने तद्, अस्य' पदों की पूर्ववत् अनुवृत्ति मानकर सूत्रार्थ किया है। वा०-हितयोगे चतुर्थी वक्तव्या' (२।३।१३) से हित' शब्द के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। अत: उन्होंने 'अस्य' इस षष्ठी-विभक्ति का 'अस्मै' इस चतुर्थी विभक्ति में विपरिणाम स्वीकार किया है। (२) महाभाष्यकार पतञ्जलि ने यहां इस प्रकार से सूत्रपाठ स्वीकार किया हैहितं भक्षास्तदस्मै' तत्पश्चात्- 'दीयते नियुक्तम् (४।४।६६)। ऐसा सूत्रपाठ करने पर उक्त विभक्ति-विपरिणाम की आवश्यकता नहीं रहती है। अत: यहां महाभाष्यकार को प्रमाण मानकर इस सूत्र का अर्थ किया गया है। यथाविहितम् (ठक)- {नियुक्तं दीयते) (१) तदस्मै दीयते नियुक्तम् ।६६ । प०वि०-तत् १।१ अस्मै ४।१ दीयते क्रियापदम्, नियुक्तम् २।१ (क्रियाविशेषणम्)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003298
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages624
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy