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________________ चतुर्थाध्यायस्य चतुर्थः पादः ४८६ (२) आक्रन्दिक: । यहां आक्रन्द' शब्द से पूर्ववत् ठक्' प्रत्यय है। यहां कित:' (६।१।१६२) से अन्तोदात्त स्वर होता है-आनन्दिकः । स्त्रीत्व-विवक्षा में 'टिड्ढाणञ्' (४।१।१५) से 'डीप्' प्रत्यय होता है-आक्रन्दिकी। गृह्णाति-अर्थप्रत्ययविधिः यथाविहितम् (टक) (१) पदोत्तरपदं गृह्णाति।३६। प०वि०-पदोत्तरपदम् २।१ (पञ्चम्यर्थे) । गृह्णाति क्रियापदम् । स०-पदम् उत्तरपदं यस्य तत् पदोत्तरपदम्, तत्-पदोत्तरपदम् (बहुव्रीहि:)। अनु०-तत्, ठक् इति चानुवर्तते । अन्वय:-तत् पदोत्तरपदाद् गृह्णाति ठक् । अर्थ:-तद् इति द्वितीयासमर्थात् पदोत्तरपदात् प्रातिपदिकाद् गृह्णातीत्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं ठक् प्रत्ययो भवति । उदा०-पूर्वपदं गृह्णाति-पौर्वपदिकः। उत्तरपदं गृह्णातिऔत्तरपदिकः। आर्यभाषा: अर्थ-(तत्) द्वितीया-समर्थ (पदोत्तरपदम्) पद शब्द उत्तर में है जिसके उस प्रातिपदिक से (गृह्णाति) ग्रहण करता है अर्थ में (ठक्) यथाविहित ठक् प्रत्यय होता है। उदा०-जो पूर्वपद को ग्रहण करता है वह-पौर्वपदिक। जो उत्तरपद को ग्रहण करता है वह-औत्तरपदिक। सिद्धि-पौर्वपदिकः । पूर्वपद+अम्+ठक् । पौर्वपद्+इक । पौर्वपदिक+सु। पौर्वपदिकः । यहां द्वितीया-समर्थ 'पद' शब्द उत्तरपदवाले पूर्वपद' शब्द से गृह्णाति अर्थ में इस सूत्र से यथाविहित प्राग्वहतीय ठक्' प्रत्यय है। पूर्ववत् ठ्' के स्थान में इक्’ आदेश, अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-औत्तरपदिकः । यथाविहितम् (ठक) (२) प्रतिकण्ठार्थललामं च।४०। प०वि०-प्रतिकण्ठ-अर्थ-ललामम् २ ।१ (पञ्चम्यर्थे) च अव्ययपदम्। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003298
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages624
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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