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चतुर्थाध्यायस्य चतुर्थः पादः उदा०-दना संसृष्टम्-दाधिकम्। मारिचिकम् । शाविरिकम् । पैप्पलिकम्।
आर्यभाषा: अर्थ-(तेन) तृतीया-समर्थ प्रातिपदिक से (संसृष्टे) मिश्रित अर्थ में (ठक्) यथाविहित ठक् प्रत्यय होता है।
उदा०-दधि (दही) से संसृष्ट-मिश्रित-दाधिक। मरिचिका (मिर्च) से संसृष्ट-मारिचिक। शृङ्गवेर (अदरक) से संसृष्ट-शाविरिक। पिप्पल (पीपल) से संसृष्ट-पैप्पलिक।
सिद्धि-दाधिकम् । दधि+टा+ठक् । दाध्+इक। दाधिक+सु । दाधिकम्।
यहां तृतीया-समर्थ दधि’ शब्द से संसृष्ट अर्थ में इस सूत्र से यथाविहित प्राग्वहतीय ठक्’ प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
विशेष: संसृष्ट अर्थ के कथन में जो पदार्थ मिलाया जाता है वह गौण होता है। जैसे दही लगाकर पूरी-पराठा खाने में दही गौण और पराठा प्रधान है। संस्कृत अर्थ में पदार्थ में उत्कर्षता का आधान होता है, संसृष्ट अर्थ में नहीं। जैसे दधि से संस्कृत-दाधिक ओदन। इनिः
(२) चूर्णादिनिः।२३।। प०वि०-चूर्णात् ५ ।१ इनि: १।१ । अनु०-तेन, संसृष्टे इति चानुवर्तते । अन्वय:-तेन चूर्णात् संसृष्टे इनिः।
अर्थ:-तेन इति तृतीयासमर्थाच्चूर्णात् प्रातिपदिकात् संसृष्ट इत्यस्मिन्नर्थे इनि: प्रत्ययो भवति।
उदा०-चूर्णैः संसृष्टा:-चूर्णिनोऽपूपा: । चूर्णिनो धानाः ।
आर्यभाषा अर्थ-तिन) तृतीया-समर्थ (चूर्णात्) चूर्ण प्रातिपदिक से (संसृष्टे) संसृष्ट अर्थ में (इनि:) इनि प्रत्यय होता है।
उदा०-चूर्ण (कसार) से संसृष्ट-चूर्णी अपूप। चून से भरे हुये गुझे। चूर्ण से संसृष्ट-चूर्णी धान।
सिद्धि-चूर्णिन: । चूर्ण+भिस्+इन् । चूर्ण+इन् । चूर्णिन्+जस् । चूर्णिनः ।
यहां तृतीया-समर्थ चूर्ण' शब्द से संसृष्ट अर्थ में इस सूत्र से 'इनि' प्रत्यय है। यस्येति च (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है।
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